उत्तराखंड के तीर्थों में क्या बदलेगा?

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उत्तराखंड के चार धामों सहित इससे जुड़े 51 मंदिरों के रख-रखाव और व्यवस्था के लिए राज्य सरकार ने श्राइन बोर्ड के गठन का फैसला किया है। चार धाम देवस्थानम प्रबंधन विधेयक के जरिए इसके लिए 10 करोड़ का अनुपूरक बजट भी पास कर दिया गया है। हालांकि तीर्थ पुरोहित और हकूक धारी इस फैसले से अपनी नाराजगी जता रहे हैं। धार्मिक अनुष्ठान न करने की चेतावनी भी दी जा रही है। उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है, लेकिन श्राइन बोर्ड बनाने के मामले में यह प्रदेश थोड़ा पीछे रह गया। बालाजी तिरुपति और वैष्णो देवी जैसे विख्यात मंदिरों का प्रबंधन श्राइन बोर्ड के तहत लाने का निर्णय काफी पहले हो गया था। माना जा रहा है कि उत्तराखंड सरकार का ताजा फैसला इन बड़े मंदिरों में श्राइन बोर्ड व्यवस्था की सफलता से प्रेरित है। वैसे बदलते समय में मंदिरों के लिए श्राइन बोर्ड स्थापित किए जाने की जरूरत कई कारणों से महसूस की जा रही थी। चार धामों में श्रद्धालुओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इस साल 36 लाख से ज्यादा श्रद्धालु आए हैं। जिस तरह उत्तराखंड में तीर्थ धामों के साथ तमाम देवालयों व आश्रमों की तीर्थाटन सर्किट के तौर पर विकसित किए जाने की योजना है, चार धामों के लिए सुव्यवस्थित ऑल वेदर रोड तैयार हो रही है और ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना मूर्त रूप ले रही है, उसे देखते हुए तय माना जा रहा है कि तीर्थयात्रियों व पर्यटकों की संख्या तेजी से बढ़ेगी।

ऐसे में 1939 के ब्रिटिश कालीन अधिनियम के तहत बनी बद्रीनाथ- केदारनाथ मंदिर समिति और गंगोत्री व यमुनोत्री के लिए अलग से बनी समिति के जरिए प्रबंधन जारी रखना धीरे- धीरे कठिन से कठिनतर होता जाएगा। उत्तराखंड में तीर्थ धामों के लिए श्राइन बोर्ड वैष्णो देवी की तर्ज पर बनाया जा रहा है। देखा गया कि 1986 में वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के बनने के बाद वहां की यात्रा व्यवस्थाओं में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। श्राइन बोर्ड बनने के बाद तिरुपति बालाजी मंदिर की धार्मिक कामों के साथ-साथ सामाजिक कामों में भी सहभागिता बढ़ी। याद रखा जाना चाहिए कि बद्रीनाथ और यमुनोत्री जैसे बड़े धामों और राज्य के छोटे-बड़े मंदिरों की यात्राओं के दौरान श्रद्धालु कई बुनियादी सुविधाओं की अपेक्षा करते हैं। मंदिर समितियां पूजा-अर्चना का काम तो कराती रहीं, लेकिन सामाजिक कामों से उस स्तर पर नहीं जुड़ पाईं जैसी उनसे अपेक्षा की जा रही थी। गंगोत्री-यमुनोत्री क्षेत्र में समय-समय पर आती प्राकृतिक दिक्कतों ने स्थिति को बदतर बनाया। ऐसी घटनाओं के दौरान या इनके बाद होने वाले विकास कार्यों में मंदिर समितियों का उल्लेखनीय सहयोग नहीं मिलता। समितियां सरकार या निजी संस्थाओं की ओर ही देखा करती हैं, अपनी तरफ से बड़ी पहल नहीं कर पातीं।

श्राइन बोर्ड को इस दृष्टि से बेहतर माना जा रहा है कि इन मंदिरों के प्रबंधन और यहां की व्यवस्था में सुधार होगा जिससे तीर्थाटन और पर्यटन का भी विस्तार होगा। स्वाभाविक तौर पर इससे लोगों के लिए आजीविका के अवसर बढ़ेंगे। पौराणिक महत्व के मंदिरों की धरोहर को संरक्षित किया जा सकेगा। इन धर्मस्थलों व मंदिरों का नियोजित विकास होगा। वैसे भी तमाम दिक्कतों और कठिन परिस्थितियों में भी सदियों से देश-दुनिया से तीर्थयात्री इन तीर्थ स्थलों में आते रहे हैं, अपनी श्रद्धा से धन भी देते रहे हैं। अब इसका स्वरूप बढ़ेगा। अस्वाभाविक नहीं कि राज्य के लोग इस फैसले से उत्साहित हैं। आशंका अगर किसी को है तो तीर्थ-पुरोहितों और पुजारियों को। उनकी कुछ चिंताएं वाजिब भी हैं। चूंकि उनका जीवन और आजीविका इसी पर निर्भर है, इसलिए उनके सवालों को सीधे खारिज नहीं किया जा सकता। इस संबंध में अच्छी बात यह है कि सरकार ने उन्हें अपने स्तर पर आश्वस्त करने का प्रयास किया है। उनसे बातचीत के द्वार भी खुले रखे गए हैं। उम्मीद की जाए कि पुरानी व्यवस्था से जुड़े तबकों की चिंताओं का उपयुक्त समाधान करते हुए सरकार श्राइन बोर्ड की यह नई व्यवस्था लागू करेगी जिससे उत्तराखंड के तीर्थों को बेहतर प्रबंधन मिलेगा और यहां आने वाले तीर्थयात्रियों को ज्यादा सुकून और संतोष भी प्राप्त होगा।

देव विलास उनियाल
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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