फिलहाल चर्चाओं में गरीब सवर्णों का दस फीसद आरक्षण है। मोदी सरकार दावा भी कर रही है कि पहले तयशुदा आरक्षण के अलावा ये हिस्सा गरीबों को दिया जाएगा लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या 8 लाख सालाना कमाने वाला गरीब होता है?
आजादी के साथ ही अगर आरक्षण लागू हो गया था तो फिर अब तक आरक्षण पाने वाले जातियों का कल्याण क्यों नहीं हुआ? खोट आरक्षण नीति में है या फिर सरकारी सिस्टम में? हैरानी की बात तो ये है कि सामान्य तबका हमेशा से इस बात का रोना रोता रहा है कि उसके लिए सरकारी नौकरी पाने के चांस बचे ही नहीं है? आरक्षण पाने वाली जातियों के भीतर से भी ये आवाजें आती रहती हैं कि आरक्षण का फायदा पूरी तरह उन्हें मिलता ही कहां है तो फिर सवाल ये पैदा जरूर होता है कि आरक्षण जा कहां रहा है? अगर 71 साल में जातियों के कल्याण नहीं हुए तो फिर आरक्षण से असली फायदा कब तक सामने आएगा? फिलहाल चर्चाओं में गरीब सवर्णों का दस फीसदी आरक्षण है। मोदी सरकार दावा भी कर रही है कि पहले तयशुदा आरक्षण के अलावा ये हिस्सा गरीबों को दिया जाएगा, लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या 8 लाख सालाना कमाने वाला गरीब होता है? खैर नीति सरकार की है वो जाने या कोटा पाले वाले जानें लेकिन अगर सरकारी आंकड़ों को ही देखें तो साफ झलकता है कि आरक्षण के बावजूद दलितों की भागीदारी नौकरियों में ज्यादा बढ़ी नहीं है जबकि कहां यही जाता है और धारणा भी यही है कि आरक्षण की वजह से उनके पास नौकरियों के अवसर ज्यादा हैं।
अगर अवसर ज्यादा हैं तो फिर नौकरियों में पिछड़े ही पिछड़े और दलित ही दलत नजर आने चाहिए थे लेकिन ऐसा है क्यों नहीं? सामाजिक न्याय का ढोल धरातल के सच के आगे फटा हुआ नजर क्यों आता है? जिन आंकड़ों पर हम लिख रहे हैं वो पूरी तरह सरकारी हैं। देश में कुल 40 केन्द्रीय विवि हैं। पढ़ाने वाले 11486 हैं और बाकी गैर शिक्षण कर्मचारी 5835। तो इस संख्या में से दलित प्रोफेसर होने चाहिए थे 50 फीसद। जबकि हैं कुल मिलाकर पांच फीसद। यानी बाकी 95 फीसद इन पदों पर सवर्ण काबिज हैं तो फिर आरक्षण गया कहां? यही हाल एसोसिएट प्रोफेसर का है। 2620 में से केवल 130 दलित हैं, 34 आदिवासी हैं और बाकी सवर्ण। हैरत अंगेज पलहू तो ये है कि कि आरक्षण लागू होने के 28 साल बाद भी भारत में एक भी एसोसिएट प्रोफेसर पिछड़े वर्ग का नहीं है तो फिर आरक्षण गया कहां ? असिस्टेंट प्रोफेसर 7741 हैं, 931 दलित, 423 आदिवासी, 1113 पिछड़े वर्ग के हैं और बाकी 5130 सवर्ण हैं। जबकि उनके केवल पद होने चाहिए थे 3870 तो फिर केसे दोष दिया जाए? रेलवे में 68 फीसद सवर्ण कर्मचारी हैं। बाकी 71 विभागों में 63 फीसद सवर्ण हैं।
राष्ट्रपति सचिवालय तक में 74 फीसद सवर्ण हैं। तो फिर ये धारणा पैदा क्यों हो रही है कि सारी नौकरियां आरक्षण की भेंट चढ़ गई हैं। दरअसल कारण केवल आबादी का है। सवर्णों के चांस ज्यादा नहीं। इससे ज्यादा अफसोसजनक स्थिति और क्या होगी कि पहली अप्रैल 2018 तक भारत के किसी भी विवि में कोई पिछड़े वर्ग का ना तो प्रोफेसर था और ना ही एसोसिएट। हकीकत यही है कि ना तो आरक्षण पाने वाले खुश हैं और ना ही इससे वंचित रहने वाले। खुश हैं तो केवल राजनीतिक दल जिनकी वोटों की फलल आरक्षण की हुंकार से ही पैदा होती है।।
लेखक
डीपीएस पंवार