आधुनिक जीवन में गीता की उपादेयता

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आधुनिक जीवन शब्द आते ही हमारे मन में हजारों तरह की जिज्ञासाओं का जन्म होता है। ऐसा क्या है? जो आज हो गया है और जो पहले नहीं हुआ! श्रीमद्भगवद्गीता की आधुनिक जीवन में उपादेयता को समझने से पूर्व हमें अपने जीवन को समझना होगा। यहाँ जीवन के साथ-साथ दो बातें और स्पष्ट करनी होगी कि पौराणिक जीवन और आधुनिक जीवन में क्या-क्या भिन्नताएं है ?

जीवन और जीवन शैली –‘जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर’ जीव के लिए ‘जीवन’ कहलाता है यह समायातीत है अर्थात जीवन को समय, अवधि अथवा काल से मूल्याकिंत किया जाता है। शरीररूपी जीवधारी, जन्म के बाद बढ़ता हुआ जब बाल्यकाल, किशोरावस्था, युवावस्था, अधेड़ अवस्था और वृद्धावस्था में पहुंचता है और अपनी इच्छानुसार किन्ही विशेष सिद्धान्तों एवं नियमों के अनुरूप जीवन बीताता है तो उसे उस जीव की जीवन शैली कहा जाता है अर्थात जीवन शैली से तात्पर्य जीव की अपनी इच्छानुसार सिद्धान्तों एवं नियमों के अनुरूप जीवन बीताना जीवन शैली है। यही सिद्धान्त और नियम जब जीव अपने पुरखों से सीखता है तो धीरे-धीरे परम्पराओं का निर्माण होता है और कई पीढ़िया बीतने के बाद उन्हीं परम्परारूपी सिद्धान्तों एवं नियमों से धर्मों का उदय होता है। श्रीमद्भगवद्गीता संसार में व्याप्त बहुत से नियमों, सिद्धान्तों और नीतियों का सार है। अब हम पौराणिक जीवन शैली पर प्रकाश डालते है।

पौराणिक जीवन शैली- भौतिकवादी युग अथवा मशीनीकरण से पूर्व की जीवन शैली को हम पुरातन जीवन शैली में रख सकते है क्योंकि मशीनीकरण से पूर्व मनुष्य की जीवन शैली में प्राचीन काल से कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। जो भी परिवर्तन हुआ वह भौतिकवादी युग के कारण हुआ। पौराणिक जीवन शैली की विशेषताएं बिन्दुवार निम्न प्रकार है –
1. प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठना एवं रात्रि में जल्दी सोना।
2. शौच, व्यायाम, स्नान, पूजा-पाठ आदि दैनिक कार्यों से निवृत्त होना।
3. दिनभर कार्य में शारीरिक श्रम की अधिकता होना।
4. सामूहिक जीवन यापन करना।
5. सामूहिक एवं पारिवारिक कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करना।
6. सात्विक भोजन गृहण करना।
7. राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि संतापों से दूर रहना।
8. आवश्यकतानुसार महत्वकांक्षी होना।
9. सात्विक एवं उच्च विचारों के साथ जीवन व्यतीत करना।
10. समाज की प्रथाओं एवं परम्पराओं का सम्मान करना।
11. कार्यों का आपस में बंटा होना एवं उत्साह के साथ करना।

आधुनिक जीवन शैली – शहरीकरण एवं मशीनीकरण के युग को आधुनिक कहा जाता है और जो मनुश्य शहरों में रहते है उनकी जीवन शैली को आधुनिक जीवन शैली कहा जाता है। आधुनिक जीवन शैली में मनुष्य ने अपने आराम के लिए सभी तरह का विकास किया है जैसे मकान बनाने की तकनीक, ट्रांस्पोर्ट तकनीक, संचार तकनीक, सम्प्रेषण तकनीक, विद्युत चलित उत्पाद एवं तकनीक आदि आदि। यहाँ यह समझने वाली बात है कि हमने मशीनी को अपनाकर क्या गलत किया? बस यही पर हमारा चिन्तन शुरू होता है कि हमने क्या गलती की? भौतिकवादी युग में मनुष्य ने सभी आराम की वस्तुएं एवं उत्पाद तो बना लिए परन्तु इससे उसे आराम मिला बस यही ‘आराम’ उसके लिए अभिशाप बन गया! पौराणिक काल में सभी कार्यों में शारीरिक श्रम अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ था जैसे पुरुषों के लिए संदर्भित कार्य-खेती करना, हल जोतना, खेत के लिए पानी की व्यवस्था करना, जैविक खाद का प्रबन्ध करना, वजन उठाना, पशुओं का चारा लाना, चारा काटना एवं पशुओं को चारा डालना, घर से बाहर के कार्य, दूर तक पैदल अथवा बैल गाड़ी से जाना, कुश्ती करना इत्यादि। महिलाओं के लिए संदर्भित कार्य- चूल्हा जलाकर रसोई बनाना, कपड़े धोना, घर के आंगन में गोबर लीपना, दूध निकालना, पशुओं के नीचे की सफाई करना, चक्की चलाकर गेहूं पीसना, बच्चों को पालना एवं वृद्धों की सेवा करना आदि। इन सभी कार्यों में शारीरिक श्रम की भरमार है जो आज के आधुनिक जीवन में नहीं है क्योंकि वाशिंग मशीन, गैस-चूल्हा, घरों में फर्श का होना, पशुओं का न पालना, खेती न करना, चक्की न चलाना इत्यादि से शारीरिक श्रम तो समझो समाप्त प्रायः हो चुका है। मनुष्य कितना भी आधुनिक क्यों न हो जायें परन्तु शरीर-शरीर प्रक्रिया और पंचतत्वों से बनी पारिस्थितिकी कभी नहीं बदलती है क्योंकि यह पुरातन है और नित-नवीन भी; बदलता है तो सिर्फ मनुष्यों का रहन-सहन, तौर-तरीके, तकनीकी, पहनावा, खान-पीन, विचार, शैली और धर्म। शहरीकरण एवं आधुनिकीकरण के चलते आज का

मनुष्य की जीवन शैली कुछ निम्न प्रकार है-
1. प्रातः देर से उठना व रात में देर तक जागना।
2. धन उपार्जन, सुख-समृद्धि इत्यादि अर्थात अतिमहत्वकांक्षा होना।
3. प्रतियोगिता का वातावरण, मनुष्य की एक दूसरे से बढ़त की इच्छा रखना।
4. तीव्र एवं तनाव भरा दिन गुजरना, अस्वस्थता का बढ़ता ग्राफ।
5. एकाकी जीवन एवं सामाजिक भावना का अभाव।
6. संयुक्त परिवरों का विखण्डन।
7. अत्यधिक विद्युत चालित तकनीकी पर निर्भरता ।
8. समय प्रबन्धन में असामंजस्यता।
9. कर्तव्यों के निर्वाह में कमी।
10. ग्लैमरस दुनिया की चाह से, अपना आज का वर्तमान खराब करना।
11. वृद्ध-आश्रमों की संख्या में वृद्धि अर्थात पारिवारिक सामंजस्यता का न होना।
12. व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर मूल्यों का हा्रस आदि।

श्रीमद्भगवद्गीता की आधुनिक जीवन में उपादेयता – श्रीमद्भगवद्गीता –

1. कर्तव्यों का बोध कराती है।
2. सफलता, शांति और संतोष का अनुभव कराती है।
3. जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की प्रगति हेतु प्रेरित करती है।
4. संकल्प और आत्मविश्वास को जगाती है
5. परिस्थितियों का सामना करना सीखती है।
6. सुख-दुःख में समस्थिति सीखाती है।
7. त्रिगुणों के साथ तात्विक ज्ञान प्रदान करती है।
8. उत्तम शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए योग सीखाती है।
9. उचित समय पर उचित कार्य का प्रस्ताव रखती है।
10. संतुलित भोजन की उत्कृष्टता बताती है।
11. एकांत मंे अभ्यास की बात सीखाती है।
12. मानसिक विकारों से मुक्ति या आंतरिक स्वतंत्रता की उद्ेघोषणा करती है।
13. यज्ञ, जप, तप एवं दान का मर्मत्व सीखाती है।
14. कर्म-अकर्म की स्थिति की विवेचना करती है।
15. निष्काम कर्म का श्रेष्ठता प्रतिपादित करती है।
16. मोक्ष प्राप्ति के मार्गों का उल्लेख करती है।
17. श्रेष्ठ पुरुष के लक्षणों को बताती है।
18. सात्विक, श्रेष्ठ व शास्त्रोक्त आचरण का प्रतिपादन करती है।
19. जीव-जीवात्मा सम्बन्ध को उजागर करती है।
20. ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग का निरूपण करती है।
वर्तमान में

मनुष्य की समस्याएं एवं गीतानुसार समाधान: श्रीमद्भगवद्गीता का महत्व सम्पूर्ण मानव समाज के लिए प्रासंगिक है। श्रीमद्भगवद्गीता ही एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें सृष्टि के सम्पूर्ण आध्यात्मिक पक्षों का समावेश है, जिनको पूर्ण रूप से समझ लेने पर भारतीय चिन्तन का समस्त सार ज्ञात हो सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता ग्रन्थ को ‘प्रस्थानत्रय’ माना जाता है। ‘उपनिषद्’ अधिकारी मनुष्यों के काम की चीज है और ‘ब्रह्मसूत्र’ विद्वानों के काम की, परन्तु श्रीमदभगवद्गीता सभी के काम की चीज है।

1. कर्तव्य बोध – मनुष्य के कर्तव्यों को व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक तीन हिस्सों में विभक्त किया जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को तीनों प्रकार के दायित्वों का निर्वहन करने की आज्ञा दी जाती है। अर्जुन को कहते है श्रीकृष्ण कहते है हे अर्जुन तुम्हें यह कायरता वाली बातें शोभा नहीं देती है, तुम्हें अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए युद्ध करना चाहिए। युद्ध न करने से तू अपयश को प्राप्त होगा। आगे कहते है वह अर्जुन को कर्म सिद्धान्त की व्याख्या करते है। प्रत्येक प्राणी कर्म बन्धन में बंधा हुआ है, वह बिना कर्म किए रह नहीं सकता अर्थात कर्म न करने वाला प्राणी भी तो अकर्म की श्रेणी में आ जाता है परन्तु यह भी तो ‘कर्म न करने’ का कर्म करता है अर्थात कोई भी मनुष्य कर्म-अकर्म-विकर्म से नहीं बच सकता, कर्म तो करना ही होगा। अपने विवेक ज्ञान के आधार पर कौन से कर्म करने है इसका चयन करना चाहिए। कर्तव्यों का निर्वहन करते समय, पाप-पुण्य का विचार नहीं किया जाता। अपने कर्तव्यों के त्याग की न तो धर्म आज्ञा देता है और न ही अध्यात्म कहता है। वह कर्म जो बिला फल की इच्छा के किए जाते है निष्काम कर्म कहलाते है अर्थात जो मुझे समर्पण कर या मेरे आदेश का निर्वहन समझकर किए जाने वाले कर्म है, उनका जीव को पाप-पुण्य नहीं लगता। तू फल की इच्छा तो त्यागकर, अपने कर्तव्यों सहित सभी कर्मों को मुझे समर्पित करता हुआ कर्म कर, ऐसा करने से तू सर्वथा सभी पाप-पुण्यों से बच जाएगा। श्रीमदभगवद्गीता के अनुसार सभी को अपने-अपने वर्ग-धर्म के अनुसार कार्यों का निर्वहन करना चाहिए उनसे विमुख नहीं होना चाहिए।

2. मानसिक द्वंद – आज की तेज व तनाव भरी जीवन शैली में मनुष्यों को मनोकायिक रोगों ने आ घेरा है। मनुष्य आज मानसिक विकृति का शिकार हो चुका है। मनुष्यों को नहीं पता है कि वह क्या कर रहें? है और क्यों? और अधिक चिन्तन करने पर मनुष्य पाता है कि मेरे दादा जी ने शादी की, पिताजी की उत्पत्ति हुई, फिर मेरी ऐसा क्रम लगातार चल रहा है पर क्यों? मनुष्य सोचता है कि हमारे दिशा कया है? यही नहीं मनुष्य वर्तमान शहरीकरण में अपने आप को अकेला और असुरक्षित समझता है। जिससे उसके दिमाग मंे कुंठा घर जाती है। वही ग्लैमर को देखकर उसके मन में अतिमहत्वकांक्षा का जन्म होता है जिससे आसक्ति बढ़ती है और राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि का जन्म होता है यह सभी मानसिक दोष है। श्रीमदभगवद्गीता में मानसिक रोगों के निवारण हेतु जप, तप, यज्ञ व दान की महिमा का भी वर्णन हुआ है। इससे आगे भी जब कुछ रास्ता न मिलें तो सब-कुछ ईश्वर पर छोड़ते हुए निष्काम कर्म करों जिससे आत्मसंतुष्टि मिलेगी और आत्मविश्वास बढ़ेगा।

3. आरोग्यता- वर्तमान जीवन शैली इतनी व्यस्त है कि मनुष्य के पास अपने लिए समय ही नहीं है। कुछ मनुष्य तो ऐसे है जिन्होंने प्रातः कालीन सूर्य की आभा को कई वर्षों से देखा तक नहीं; ऐसे में मनुष्यों का स्वास्थ्य रूग्न तो होगा ही। रोग सर्वप्रथम मन में घर करते है तदुपरांत शरीर में अर्थात यह माना जाता है कि मनुष्य के सभी रोग मनोकायिक होते है परन्तु यह भी देखा गया है कि जैसा हम आहार लेते है उसका प्रभाव भी हमारे मन पर पड़ता है। इसलिए श्रीमदभगवद्गीता में योग करने की सलाह दी गयी है और कहा गया है कि योग उसी का सिद्ध होता है जो समय पर अभ्यास करता है, निरन्तर करता है, समय पर भोजन ग्रहण करता, जरूरत से अधिक परिश्रम नहीं करता है, न अधिक सोता है और न अधिक जागता ही है अर्थात श्रीमदभगवद्गीता के अनुसार समय प्रबन्धन से मनुष्य सफल होता है। श्रीकृष्ण ने आहार को सात्विक, राजसिक एवं तामसिक माना है, जिस प्रकार का मनुष्य भोजन करता है उसको वैसा ही फल मिलता है। सर्वश्रेष्ठ आहार सात्विक भोजन है। उचित आहार-विहार से वह आरोग्यता को प्राप्त करता हुआ सिद्ध हो जाता है।

4. स्वस्थ आचरण – आधुनिक जीवन शैली में सामाजिक गठबंधन टूट रहा है। मनुष्य अपने स्व-नियंत्रण में नहीं है। जहाँ-तहाँ क्रोध का साम्राज्य फैला नज़र आता है। मनुष्यों को अपनी-अपनी मर्यादाओं व रिश्तों का भान नहीं है। श्रीमदभगवद्गीता मनुष्यों के गुणों का वर्णन दो विभागों के रूप में करते है श्रीकृष्ण कहते है अर्जुन, गुण दो प्रकार है दैवीय गुण और राक्षसी गुण। आगे कहते है कि मनुष्यों को दैवीय गुणों का आचरण करना चाहिए और राक्षसी गुण वाले मनुष्यों की उपेक्षा करनी चाहिए। श्रीमदभगवद्गीता में शास्त्र विपरीत आचरण को त्यागने और श्रद्धायुक्त होकर शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा मिलती है।

स्वयंप्रकाश
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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