आधी आबादी के साथ लैंगिंग भेदभाव क्यों

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आधी आबादी बदल सकती है देश की तकदीर

यदि देश की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी अधिक हो जाये तो हमारे देश की तकदीर ही बदल जायेगी। आप जानते ही हैं कि आदमी केवल कमाकर ला सकता है। परंतु उस घर-परिवार को सिर्फ एक महिला ही भलीभांति चला सकती है। क्योंकि उसमें धैर्य, पराक्रम और विवेक तथा सहनशक्ति बहुत अधिक होती है। परंतु हम इसे दुर्भाग्य ही कह सकते हैं कि दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र में जब आधी आबादी हर मुकाम पर चार चांद लगा रही है। चाहे वह दुनिया की सबसे बड़ी वायुसेना हो, थल सेना हो यानिके महिला किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से पीछे नहीं हैं फिर भी हमारे देश की आधी आबादी राजनीति से कोसो दूर है।

यदि आधी आबादी अपना कर्तव्य समझ जाये तो देश की राजनीति की तस्वीर ही बदल जायेगी। या हम इसे यूं कह सकते हैं कि इसके कम होने के पीछे अब तक समाज में पितृसत्तात्मक ढांचे का मौजूद होना है। यह न सिर्फ़ महिलाओं को राजनीति में आने से हतोत्साहित करता है बल्कि राजनीति के प्रवेश द्वार की बाधाओं की तरह काम करता है। लेकिन राजनीतिक दलों के भेदभावपूर्ण रवैये के बावजूद मतदाता के रूप में महिलाओ की भागीदारी नब्बे के दशक के अंत से उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। वर्तमान समय में यदि इसका आंकड़ा यही रहा तो वह दिन दूर नहीं जब महिलाओं का हमारे देश की राजनीति में अपना एक वर्चस्व हो सकता है। आज तब महिला मतदाताओं की याद सिर्फ़ चुनाव के दौरान ही आती है और उनके घोषणापत्रों में किए गए वादे शायद ही कभी पूरे होते हैं।

अब ऐसे में यह अनिवार्य हो जाता है कि चुनावों के विभिन्न स्तर पर महिलाओं की भागीदारी का विश्लेषण किया जाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि आज़ादी के सात दशक बाद भी इसमें ग़ैरबराबरी क्यों है। महिलाओं की चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी का विश्लेषण एक पिरामिड मॉडल के रूप में किया जा सकता है। इसमें सबसे ऊपर लोकसभा में उनकी 1952 में मौजूदगी, 22 सीट, को रखा जा सकता है जो 2014 में 61 तक आ गई है यह वृद्धि काफी कम मात्रा में है। लेकिन लैंगिक भेदभाव अब भी भारी मात्रा में मौजूद है और लोकसभा में 10 में से नौ सांसद पुरुष हैं। 1952 में लोकसभा में महिलाओं की संख्या 4.4 % थी जो 2014 में क़रीब 11 है।

लेकिन यह अब भी वैश्विक औसत 20 से कम है। चुनावों में महिलाओं को टिकट न देने की नीति न सिर्फ़ राष्ट्रीय पार्टियों की है बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां भी इसी राह पर चल रही हैं और इसकी वजह बताई जाती है उनमें (जीतने की क्षमता) कम होना, जो चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। जबकि भारत के आम चुनावों में महिला उम्मीदवारों की सफलता का विश्लेषण करने वाले एक विशेषज्ञ के अनुसार यह पिछले तीन चुनावों में बेहतर रही है। 2014 के आम चुनावों में महिलाओं की सफलता 9 रही है जो पुरुषों की 6 के मुक़ाबले तीन फ़ीसदी ज़्यादा है। यह आंकड़ा राजनीतिक दलों के जिताऊ उम्मीदवार के आधार पर ज़्यादा टिकट देने के तर्क को ख़ारिज कर देता है और साथ ही महिला उम्मीदवार न मिलने की बात को निराधार ठहराता है।

लोकसभा और फ़ैसले लेने वाली जगहों, जैसे कि मंत्रिमंडल, में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व सीधे-सीधे राजनीतिक ढांचे से उनको सुनियोजित ढंग से बाहर रखने और मूलभूत लैंगिक भेदभाव को रेखांकित करता है। हालांकि महिलाएं राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर ठीक-ठाक संख्या में राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करती हैं लेकिन इन राजनीतिक दलों में भी उच्च पदों पर महिलाओं की उपस्थिति कम ही है। जो महिलाएं पार्टी के अंदरूनी ढांचे में उपस्थित दर्ज करवाने में कामयाब रही हैं उन्हें भी नेतृत्व के दूसरे दर्जे पर धकेल दिया गया है और वह (शीशे की छतश् को तोड़ पाने में नाकामयाब रही हैं) वह राजनीतिक दलों में नीति और रणनीति के स्तर पर बमुश्किल ही कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और अक्सर उन्हें (महिला मुद्दों) पर निगाह रखने का काम दे दिया जाता है, जिससे कि चुनावों में पार्टी को फ़ायदा मिल सके।

नब्बे के दशक में भारत में महिलाओं की चुनावों में भागीदारी में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी देखी गई। वर्तमान में हुए आम चुनावों में आज तक की सबसे ज़्यादा महिला मतदाताओं की भागीदारी देखी गई। चुनाव प्रक्रिया में महिलाओं की भागदारी 1962 के 46.6 % से लगातार बढ़ी है और 2014 में यह 65.7 % हो गई है, हालांकि 2004 के आम चुनावों में 1999 के मुक़ाबले थोड़ी गिरावट देखी गई थी। 1962 के चुनावों में पुरुष और महिला मतदाताओं के बीच अंतर 16.7% से घटकर 2014 में 1.5 % हो गया है। 90 के दशक में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को दिए गए 33% आरक्षण से देश की महिलाओं में पुरुषों की तरह ही सत्ता हासिल करने की भावना विकसित हुई है।

इसने एक प्रेरणादायक का काम किया और जो शक्ति प्रदान की उससे महिला मतदाताओं की चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी भी बढ़ी। देश में महिलाओं ने दलितों या मुसलमानों जैसे (किसी ख़ास वर्ग) के रूप में कभी मतदान नहीं किया और न ही किसी राजनीतिक दल ने राज्य या देश के स्तर पर ऐसी कोशिश की कि उन्हें उनसे जुड़े किसी मुद्दे पर आंदोलित किया जाए। पार्टियों को महिला मतदाताओं की याद सिर्फ़ चुनाव के दौरान ही आती है और उनके घोषणापत्रों में किए गए वादे शायद ही कभी पूरे होते हैं। महिलाओं के मुद्दों के प्रति राजनीतिक दलों की गंभीरता महिला आरक्षण बिल को पास करने में असफलता से ही साफ़ हो जाती है।

पिछले कुछ चुनावों के प्रमुख राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर नज़र डालने से साफ़ हो जाता है कि उनमें लैंगिक मुद्दे प्रमुखता रखते हैं। लेकिन घोषणापत्रों में जो वादे किए जाते हैं वह घिटे-पिटे होते हैं और चुनावी गहमा-गहमी के बाद आसानी से भुला दिए जाते हैं देश में महिला आंदोलन इस वक्त संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के सवालों पर सकारात्मक कार्रवाई को लेकर बंटा हुआ है। यह मूलतः दो बातों पर केंद्रित है. पहला कुल मिलाकर महिला आरक्षण का कोटा बढ़ाने को लेकर और उसमें पिछड़ी जाति की महिलाओं को लेकर और दूसरा अभिजात्यवाद के मुद्दे को लेकर है।

जबकि निकाय चुनावों में महिलाओं के लिए सकारात्मक दिशा में काम किया जाना इस वक्त की ज़रूरत है। इसके लिए महिलाओं की चुनावी प्रक्रिया में बाधक बनने वाली चीज़ों को दूर किए जाने की ज़रूरत है और चुनावी राजनीति में मौजूदा दूरियों को पाटने के साथ ही इसे लैंगिक भागीदारी वाला बनाने की ज़रूरत है। कुछ पार्टियां तो महिला आरक्षण का विरोध करती हैं। उनकी करनी और कथनी में जमीन और आसमान का अंतर है। देश की आधी आबादी को उम्मीद ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास है कि वास्तव में अब महिलाओं के लिए अच्छे दिन आने वाले हैं।

– सुदेश वर्मा

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