दुश्मन कोरोना काफी कमजोर है, लेकिन माहौल में इसे लेकर जिस तरह की घबराहट भर चुकी है, उस वजह से यह बलशाली दिखता है। कोरोना से जीतने के लिए मुख्य रूप से ऊंचे मनोबल और सावधानी की दरकार है। कोरोना के कारण दस दिन अस्पताल में बिताने के बाद अब मुझे लगता है कि होम आइसोलेशन कहीं बेहतर विकल्प होता। कोरोना पॉजिटिव आने पर 9 मई को मैं आगरा के एक निजी अस्पताल में निजी खर्चे पर भर्ती हुआ। अस्पताल में इलाज के दौरान मुझे कोई विशेष दवा नहीं दी गई। बुखार आने पर पैरासिटामॉल और खांसी के लिए विटामिन-सी टैबलेट लेने की हिदायत दी गई थी। सारी व्यवस्थाएं मेरे बेड पर ही उपलब्ध थीं। मेरे वॉर्ड में भर्ती किसी मरीज को कोई लक्षण नहीं थे। मुझे एक दिन मामूली बुखार जरूर आया था।
अस्पताल के एक वॉर्ड में छह पलंग एक सुरक्षित दूरी पर डाले गए थे। सैनिटाइजेशन की बेहतर व्यवस्था थी। मगर हमें शौचालय साझा करना पड़ रहा था। साफ है कि अगर कोई गंभीर बीमारी नहीं है तो कोरोना कोई मुश्किल समस्या नहीं। बेहतर माहौल, प्रोटीनयुक्त भोजन और ऊंचा मनोबल इस बीमारी से ठीक होने के लिए काफी है। असल में कोरोना से कहीं अधिक डर अस्पताल की व्यवस्थाओं को लेकर है। परिवार से दूर कोई मरीज को देखने वाला नहीं होता। इस माहौल ने कोरोना को लेकर एक अनावश्यक भय पैदा किया है। लिहाजा, कोरोना पीड़ितों को सहानुभूति मिलने की बजाय दूरी मिल रही है। उन्हें अकेला छोड़ दिया जा रहा है। ऐसे माहौल में ऊंचा मनोबल बनाए रखना बहुत कम संभव हो पाता है। यह स्थिति इस बीमारी से लड़ने के लिए कतई अच्छी नहीं है। मैं अस्पताल से 19 मई को डिस्चार्ज हुआ। इन दस दिनों में हमें किसी डॉक्टर की विजिट की जरूरत महसूस नहीं हुई। डॉक्टर विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हमसे बात कर रहे थे। सारा काम पैरामेडिकल स्टाफ कर रहा था।
साफ है कि अगर कोरोना के गंभीर लक्षण या कोई अन्य बीमारी नहीं है तो मरीज का अस्पताल में भर्ती होना अनावश्यक है। उसके लिए जिस खुशनुमा माहौल, बेहतर पोषण और ऊंचा मनोबल चाहिए, वह सब होम क्वारंटीन में अधिक बेहतर तरीके से मिल सकता है। मरीज अपने परिजनों के साथ भावनात्मक तौर पर अधिक मजबूत महसूस करता है। सवाल है कि अगर कोरोना से लड़ना इतना आसान है तो इसे इतना जटिल क्यों बनाया गया है? क्वारंटीन या आइसोलेशन को लेकर ऐसा डर क्यों पैदा किया गया है? असल में इस नई बीमारी के प्रति कम जानकारी, मीडिया से बने माहौल और हड़बड़ी में उठाए गए कदमों ने सब कुछ गड़बड़ कर दिया। दिल्ली सरकार ने अस्पतालों में बेड खाली होने के बावजूद सामान्य कोरोना पॉजिटिव मरीज को होम आइसोलेशन का अच्छा विकल्प दिया है। मैं कोई डॉक्टर नहीं हूं, लेकिन अस्पताल के अपने अनुभवों के आधार पर लिख रहा हूं। जिसके पास अलग शौचालय और कमरे की व्यवस्था है, उसके लिए होम क्वारंटीन एक बेहतर विकल्प है।
इसके लिए बस कुछ सावधानी बरतनी होगी। पहली, सैनिटाइजेशन का ख्याल रखा जाए। घर के अन्य सदस्यों से सीधे संपर्क में आने से बचा जाए। खाना डिस्पोजल बर्तनों में लिया जाए और उसे सावधानी से डिस्पोज किया जाए। घर के सदस्य मास्क लगाकर रहें। मरीज अपने कमरे तक ही सीमित रहे। अपने घर में मरीज सुरुचिपूर्ण भोजन करेगा और उसे अस्पतालों से कहीं बेहतर भावनात्मक माहौल मिल सकेगा। निजी अस्पताल में आज मरीज लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं। होम आइसोलेशन में उस खर्च से बचा जा सकेगा, अस्पतालों की लूट भी रुकेगी। महज कुछ सावधानी बरतकर कोरोना से इस लड़ाई को आसान बनाया जा सकता है। दिल्ली सरकार की जो कोशिश है, उससे क्वारंटीन और आइसोलेशन को लेकर बना तनाव कम होगा। इससे लोग स्वेच्छा से जांच कराने को भी आगे आएंगे। अभी अधिक दबाव के कारण डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ भयभीत है। होम आइसोलेशन से अस्पताल पर बना अनावश्यक दबाव कम होगा। इससे डॉक्टर गंभीर मरीजों पर अधिक ध्यान दे पाएंगे। हां, होम आइसोलेशन की निगरानी और डॉक्टरी सलाह का एक तंत्र अवश्य विकसित करना होगा।
(लेखक योगेश जादौन वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)