हर किसी की दो दुनिया होती हैं। एक बाहरी, एक अंदरूनी। बाहर की दुनिया हम सबसे बांट लेते हैं, अंदर की नहीं बांट पाते। कभी बांटने की कोशिश करते भी हैं, तो वह किसी के साथ बंट नहीं पाती। सब अपने भीतर एक तरह का अंधेरा लिए फिरते हैं। इस अंधेरे में कई उलझनें होती हैं, कई अबूझ-अपरिभाषित आशंकाएं। कहीं कोई डर कुंडली मारे बैठा होता है। आप इन चीजों को छोड़ भी नहीं पाते। आपके साथ ये ताउम्र चलती रह सकती हैं। मेरा भी एक डर रहा है मेरे साथ। बचपन से। किसी नामुराद दोस्त की तरह। न छूटा, न टूटा। यह डर था खो जाने का, अपनों से बिछुड़ जाने का, हमेशा के लिए। कहीं कोई मुझे उठा न ले जाए। फिर मेरे हाथ-पैर काट दे और मुझसे भीख मंगवाए। कभी किसी रास्ते पर अकेला हुआ तो पीछे मुड़कर देखता रहा, उन उठाकर ले जाने वालों को।
बड़ा हुआ तो सोचा, अब यह डर मेरे जेहन से निकल जाएगा। कुछ दिन दिखा नहीं तो बहुत खुश हुआ। लेकिन फिर एक दिन यह और डरावने चेहरे के साथ लौट आया और खड़ा हो गया मेरे सामने। अचानक। अब डर मुझे मेरे खो जाने का नहीं, मेरे बच्चों के खो जाने का था। उन नन्हे फूलों को देखकर सोचता था कि कहीं कोई उठाकर ले गया इन्हें तो या होगा इनकी खुशबू का, इनकी प्यारी मुस्कान का। कोई मसल तो नहीं देगा इनको अपने पैरों तले? इसलिए 3 साल की उम्र में गिनती के साथ-साथ उन्हें अपना फोन नंबर याद करा दिया। एक कविता की तरह ताकि भूलें न कभी। कभी खो जाएं तो बता दें। कोई भी मिला लेगा। और फिर मिल जाएंगे मुझे, मेरे खोए हुए बच्चे। नामुराद डर की वजह से मेरे बच्चे भीतर-भीतर न जाने कितनी बार खोए। न जाने कितनी बार मैं रोया। पर आंखें खोलकर टटोला तो बगल में ही सोते मिले।
उनके गाल चूमकर मैं फिर सोने की कोशिश में लग गया। मैं जानता हूं कि सभी मेरी तरह खुशकिस्मत नहीं हैं। सारे फूल अपनी बगिया में नहीं हैं। नोबेल पीस प्राइज पाने वाले ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के कैलाश सत्यार्थी कहते हैं- अपने देश में हर छह मिनट में एक बच्चा खो जाता है। हर घंटे में ग्यारह। ये वे हैं जो फिर कभी अपनी मां से, अपने पिता से नहीं मिलते। कुछ किसी भीख मंगवाने वाले गिरोह के हाथ चढ़ जाते हैं तो कुछ बच्चियों को कोई जिस्मफरोशी के लिए ले जाता है। कुछ साल पहले विवेक आसरी ने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, अर्पणा चंदेल की रिसर्च पर। नाम था 110002। यह दरियागंज के गुमशुदा तलाश केंद्र का पिन कोड है, दूरदर्शन पर असर गुमशुदा लोगों की तस्वीरें दिखाने के बाद बोला जाता है। यह उन अभागों की डॉक्यूमेंट्री है, जिनके लाडले अब न जाने कहां हैं, किस हालत में हैं।
मारा- मारा फिर रहा कोई पिता कुंवरपाल, जिसका 11 साल का बेटा नवंबर 2010 के बाद कभी नहीं दिखा। सुबकती ताजवर, जिसकी 6 साल की पोती तैयबा को कोई ले गया। खुद को कोसता राजकुमार जो अपनी बेटी काजल को खो चुका है। सच कहते हैं कुंवरपाल- ‘इंसान नहीं रहता तो उसका सब्र हो जाता है साहब, जिंदा का सब्र नहीं हो पाता।’ ऐसी ही एक अभागी मां रेशमा, जब अपनी बच्ची को याद करती है तो कलेजा फट के आता है। लेकिन यह स्याह रात भी हमेशा नहीं रहती। किसी-किसी के हार न मानने की जिद से यह ढल भी जाती है। फिर चमकता सूरज निकल आता है। जब-तब सुनाई पड़ता है, कोई बच्चा बड़ा होकर लौट आया। ऐसा ही हुआ था सूरू के साथ। खंडवा का रहने वाला पांच साल का मासूम सूरू।
पत्थर तोड़कर गुजारा करने वाली मां और साये की तरह साथ रहने वाले बड़े भाई की आंखों का तारा। एक दिन जिद करके निकलता है भाई के साथ काम की तलाश में और रेलवे स्टेशन पर बिछुड़ जाता है। एक खड़ी ट्रेन में चढ़ता है तो नींद आ जाती है और जब आंख खुलती है तो पहुंच चुका होता है कलकत्ता। कुछ याद नहीं उसे अपने बारे में। बस याद है मोहल्ले का नाम- धोबी तलई। रोकर, चीख-चिल्लाकर जब थक जाता है तो मान लेता कि वह खो चुका है। गलत हाथों में पडऩे से बचते-बचाते पहुंच जाता है विदेश। ऑस्ट्रेलिया का एक कपल गोद ले लेता है उसे। लेकिन इन 20 सालों में धोबी तलई उसके भीतर कभी मरता नहीं। कभी भूलता नहीं वह अपनी मां और अपने भाई का चेहरा।
ललित वर्मा
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)