हमें दूसरी चीजों की ज्यादा परवाह

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सरकार और शीर्ष नेतृत्व को हाल ही में आए ‘मूड ऑफ द नेशन सर्वे’ में रिकॉर्ड उच्च रेटिंग्स मिलीं। करीब 77% उत्तरदाता सरकार से खुश हैं। कोरोना, चीन, राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और अन्य प्रमुख मुद्दों को संभालने में सरकार की रेटिंग्स उत्कृष्ट हैं। कई विशेषज्ञ अपना सिर खुजलाते रहे कि आखिर यह हुआ कैसे? जब पहले से ही कमजोर अर्थव्यवस्था में कोरोना के कारण और गिरावट आ रही है, ऐसे में अंसतोष की एक शिकन नहीं दिख रही। कम से कम सर्वे के रुझान तो यही कह रहे हैं। उस सिद्धांत का क्या हुआ कि लोगों को अंतत: नौकरी और विकास चाहिए? दरअसल, लोगों की संतुष्टि के आंकड़े सबकुछ नहीं दिखा रहे हैं।

कई विशेषज्ञ मोदी के अंध भक्तों को इसका कारण मान रहे हैं। यह सच नहीं है। सभी विशेषज्ञ भूल रहे हैं कि हम आर्थिक रूप से महत्वाकांक्षी नहीं रहे। इस मान्यता में खामियां हैं कि भारतीय आखिरकार नौकरी और विकास चाहते हैं। सच यह है कि हमें नौकरियां और विकास तो चाहिए, लेकिन हम अन्य चीजों की ज्यादा परवाह करते हैं। यह कैसे संभव है? एक समाज विकास, बेहतर जीवनस्तर और ज्यादा पैसा क्यों नहीं चाहेगा?

ऐसा क्यों है, यह समझने के लिए 80 के दशक में जाते हैं। भारत गरीब था। प्रति व्यक्ति आय $300 के आसपास थी, यानी $1 प्रतिदिन से भी कम। इतने कम स्तर पर जिंदगी दयनीय हो जाती है। वर्ष 1991 में हमने आर्थिक उदारीकरण किया, तब भारत की भी महत्वाकांक्षाएं थीं, क्योंकि हम बहुत गरीब थे। अगले 25 साल बड़ी वृद्धि का दौर रहा। प्रति व्यक्ति आय $2000 तक पहुंच गई, यानी $5.5 प्रतिदिन। $5.5 प्रतिदिन का मतलब था कि अब अच्छे खाने की परेशानी नहीं है। आप किसी भी क्षेत्र में हों, अच्छा स्थानीय खाना कम कीमत में मिल जाएगा। फिर उत्तर के छोले-भटूरे हों या दक्षिण का डोसा, महाराष्ट्र के वड़ा पाव हों या राजस्थान की कचौरी, सभी की कीमत एक डॉलर से भी कम है।

एक और सस्ती चीज है 4जी डेटा। लगभग हर भारतीय कुछ रुपए प्रतिदिन की कीमत का कई जीबी डेटा हर महीने खरीद सकता है। यह डेटा लोगों के फोन पर ऐसी जादुई दुनिया खोल देता है, जिसे भारतीयों ने पहले नहीं देखा था। वॉट्सएप ग्रुप से लेकर ऑनलाइन शॉपिंग, गेम्स, फिल्मों तक, डेटा भारतीयों के लिए परमानंद है। $5.5 प्रतिदिन का मतलब यह भी है कि आप कपड़े खरीद सकते हैं, कभी-कभी घूमने जा सकते हैं और एक आरामदेह बिस्तर के साथ सिर पर छत भी होगी। आप सो सकते हैं, शानदार खाना खा सकते हैं और इंटरनेट पर कई घंटे कंटेंट देख सकते हैं। फिर विकास की जरूरत ही क्या है?

भारतीय संस्कृति और सामाजिक ढांचा भी लोगों पर ऊंचे उठते रहने के लिए अपेक्षाकृत कम दबाव बनाते हैं। लोग नौकरी चाहते हैं, लेकिन ‘छोटी-मोटी नौकरी’ भी चलेगी। कार खरीदना है, लेकिन ऑटो भी तो ठीक है। भारतीयों के सांस्कृतिक मूल्य भी भौतिकवाद को नकारने वाले रहे हैं। संतुष्ट रहना और कम में जीना सराहा जाता है। उदाहरण के लिए चीनियों और अमेरिकियों में ऊपर उठने और ज्यादा पैसा कमाने की कहीं ज्यादा भूख है। मैं इस पर राय नहीं बना रहा कि कौन-सी जीवनशैली बेहतर है। विकास के लिए ऐसी आबादी होनी चाहिए, जिसके अंदर और ऊपर उठने की आग हो। यह हम में नहीं है। हम काफी खुश हैं।

भारतीयों ने इच्छा की और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि पा ली और फिर अचानक प्राथमिकताएं बदल गईं। चीजें सुलभ हो गईं और अब भारतीय अन्य जरूरी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। हिन्दुओं के साथ अतीत में हुए अन्याय का मसला सुलझाना, बॉलीवुड का केस सुलझाना, मंदिर बनाना, राष्ट्रवाद, हम सोचते हैं कि ये चीजें विकास से कहीं ज्यादा जरूरी हैं। और हमारी सरकार भी ऐसी है, जो बिल्कुल इन्हीं प्राथमिकताओं पर ज्यादा सक्रिय है। ऐसे में उसे क्यों न चाहें?

यह सब हमें कहां ले जाएगा? राय बनाने वाले हम कौन होते हैं, अगर लोग विकास चाहते ही नहीं हैं? अगर लोग $5.5 प्रतिदिन में खुश हैं और अगर कुछ सामाजिक एजेंडों का समाधान होने पर उन्हें $4 प्रतिदिन में भी कोई परेशानी नहीं है, तो यह उनकी पसंद है। हालांकि, कुछ परेशानियां होंगी। मौजूदा आय स्तर अच्छी स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए पर्याप्त नहीं है। ऑस्ट्रेलिया और स्वीडन जैसे देश बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी या विकास के भूखे नहीं हैं। हालांकि, उनका आय स्तर पहले ही ज्यादा है। वहां स्वास्थ्य, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़िया है। बिना विकास, हमें यह सब भी नहीं मिलेगा। हमारा जीवनस्तर नहीं सुधरेगा। हमारे युवा छोटी नौकरियों में ही रहेंगे। हम बाबुओं, सहायक स्टाफ और निचले स्तर के कर्मचारियों वाला देश बन जाएंगे। हालांकि, हमें छोले-भटूरे हमेशा मिलते रहेंगे। उन्हें ताजी कटी प्याज, नींबू और अचार के साथ खाइए। मेरा वादा है आप आर्थिक दु:ख भूल जाएंगे।

चेतन भगत
(लेखक अंग्रेजी के उपन्यासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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