सुरक्षा की बात और जाति पर वोट

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यह बात कई नेता मानते हैं कि जिस समय उनको लग रहा होता है कि उन्होंने बहुत काम किया है और वे जीत जाएंगे, उस समय वे हार जाते हैं और जब हारा हुआ मान रहे होते हैं तो जीत जाते हैं। जिस तरह से भारत में सफल फिल्म बनाने का कोई फार्मूला नहीं है उसी तरह चुनाव जीतने का भी कोई फार्मूला नहीं है।।

भारत में चुनाव लडऩे और जीतने का कोई तय फार्मूला नहीं होता है। यह बात कई नेता मानते हैं कि जिस समय उनको लग रहा होता है कि उन्होंने बहुत काम किया है और वे जीत जाएंगे, उस समय वे हार जाते हैं और जब हारा हुआ मान रहे होते हैं तो जीत जाते हैं। जिस तरह भारत में सफल फिल्म बनाने का कोई फार्मूला नहीं है उसी तरह चुनाव जीतने का भी कोई फार्मूला नहीं है। तभी नेता कई फार्मूले आजमाते हैं। कई किस्म के वादे किए जाते हैं और कई तरह के समीकरण बनाए जाते हैं। यह मानकर कि कोई तो फार्मूला, कोई तो समीकरण कामयाब होगा! पर भारत की राजनीति का एक फार्मूला ऐसा है, जो कभी नहीं बदलता, बल्कि समय के साथ उसकी महत्ता बढ़ती जा रही है। वह है जातिवाद का फार्मूला।

जातिविहीन समाज की बात करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भी इस फार्मूले को आजमाती हैं, देश की सबसे बड़ी और सबसे व्यापक सामाजिक आधार वाली कांग्रेस भी आजमाती है और राष्ट्र प्रथम का उद्घोष क रने वाली भाजपा भी इसी फार्मूले पर चुनाव लड़ती हैं। बाकी तो जातियों पर आधारित पार्टियां है हींए जिनकी संगया लगातार बढ़ती जा रही है। अकेले इस चुनाव में जाति पर आधारित कई नई पार्टियां चुनाव मैदान में हैं। पहले दक्षिण भारत में जाति पर आधारित पार्टियां बनती थीं। कम्मा की पार्टी टीडीपी तो कापू की पार्टी प्रजा राज्यम थी, वनियार की पार्टी पीएमके है तो दलित पार्टी वीसीके है। इसी तर्ज पर बिहार और उत्तर प्रदेश में यादव, कुमी, कोईरी, मल्लाह, मांझी, पासवान हर जाति की एक एक या दो दो पार्टियां बन गई हैं। दोनों राष्ट्रीय पार्टियां इन्हीं जातिवादी पार्टियों के भरोसे कई राज्यों में चुनाव लड़ रही हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंक वाद, पाकिस्तान, सेना के शौर्य, सैनिकों को पराक्रम आदि के मुद्दों पर भाषण देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अंतत: जाति के आधार पर वोट मांगने लगे हैं। हालांकि इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है। जिन लोगों ने 2014 के लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के प्रचार को बारीकी से देखा है उनको चुनाव के पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के उत्तरी हिस्से में पहुंचने का इंतजार था। पिछली बार भी मोदी ने इन इलाकों में प्रचार के दौरान ही अपनी पिछड़ी जाति का कार्ड चला था। उन्होंने उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही सबसे ज्यादा जाति का प्रचार किया था। अमेठी में प्रचार के दौरान ही प्रियंका गांधी ने मोदी के ऊपर नीची राजनीति करने का आरोप लगाया था, जिस पर मोदी ने क हना शुरू क या था कि उनकी नीची जाति को निशाना बना कर हमला किया जा रहा है। उससे पहले वे अच्छे दिन, गुजरात मॉडल और विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे थे।

अब सवाल है कि आखिरी चरण के मतदान से पहले प्रधानमंत्री मोदी को क्यों अपनी जाति की दुहाई देने की जरूरत पड़ी है, जबकि इस बार उन्होंने बहुत कायदे से राष्ट्रीय सुरक्षा का नैरेटिव बना दिया है। यह संयोग है, जो प्रचार शुरू होने से ठीक पहले पुलवामा में आतंक वादी हमला हो गया। थोड़े ही दिन के बाद सेना ने जवाबी कार्रवाई की और तबसे प्रधानमंत्री मोदी और पूरी भाजपा उसी मुद्दे पर वोट मांग रही है। इसी बीच श्रीलंका में भी आतंक वादी हमला हुआ और उस पर भी वोट मांगा जाने लगा। इसके बीच अचानक प्रधानमंत्री मोदी ने अपने को अति पिछड़ी जाति का नेता बता कर वोट मांगा है तो इसका मतलब है कि भाजपा का सेट किया हुआ नैरेटिव काम नहीं कर रहे है।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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