साल 22-23 में सभी चुनाव एक साथ हों!

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वक्त यदि वायरस का है तो क्योंकर बिहार में विधानसभा चुनाव हो? वायरस की हकीकत, जान-माल की बरबादी में आगामी सभी विधानसभा चुनाव टलने चाहिए। कोई फर्क नहीं पड़ेगा यदि विधानसभा के कार्यकाल के खत्म होने के बाद प्रदेशों में राष्ट्रपति शासन लगे। नीतीश सरकार के मुकाबले बिहार में केंद्र के राष्ट्रपति शासन में जान-माल की अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से चिंता होगी। अपना मानना है वायरस और देश की बरबादी का महाकाल सन् 2022-23 तक अनिवार्यतः है।

तभी सभी तरह के चुनाव स्थगित हों। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार भला करेगी यदि इस बहाने देश में सभी चुनाव एक साथ कराने का वह खाका बना ले। अगले एक साल के चुनाव यदि साल भर टाल दिए जाएं और सन् 2022-23 बाद के विधानसभा चुनाव साल भर पहले कराने का फैसला हो, साथ ही लोकसभा चुनाव सन् 2024 केबजाय 2023 में करा डालने का इरादा बने तो न केवल राष्ट्रीय सर्वानुमति से एक साथ चुनाव का फैसला संभव है, बल्कि नरेंद्र मोदी के लिए सन् 2027-28तक बेखटके राज का मौका होगा।

मैं सभी चुनाव एक साथ कराए जाने का पक्षधर रहा हूं। जैसे अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के साथ प्रदेश गवर्नर, दोनों सदनों के सांसदों के निश्चित समय पर चुनाव की व्यवस्था है, वैसी जरुरत भारत को भी है। इस राजनीतिक सुधार, व्यवस्था से बार-बार, लगातार चुनाव-दर-चुनाव की मजबूरी से देश मुक्त बनेगा। पांच साल की एक निश्चित अवधि में राष्ट्रपति, लोकसभा, विधानसभा और नगरपालिका व पंचायत के एक साथ चुनाव का यदि फैसला होता है तो मतलब हुआ कि लोकतंत्र, चुनावी प्रक्रिया में पूरे देश की राजनीतिक जमीन में बीज और उर्वरता दोनों का कायाकल्प। ऐसा होना क्रांति से कम नहीं होगा।

कैसे? अपना मानना है हर स्तर के एक साथ चुनाव मेंलोगों की वह भागीदागी बनेगी, जिसमें राष्ट्रीय मुद्दों, नेतृत्व से ले कर पंचायत में जात-पांत, क्षेत्रवाद, लोकल इश्यू की जो विभाजकता बनती है वह मिटेगी या कम होती जाएगी। मतदाता के सोचने का दायरा व्यापक बनेगा और समग्रता में विचारते हुए मताधिकार का उपयोग होगा। राजनीति का स्तर सुधरेगा। खर्च, देश के समय, राजनीतिक दलों की सेहत के भी ऐसे कई पहलू हैं, जो एक साथ चुनाव से दुरूस्त होंगे।एक साथ सभी चुनाव में राष्ट्रपति का चुनाव इसलिए जुड़ा होना चाहिए ताकि नई लोकसभा-विधानसभाओं के छह महीने के भीतर नया राष्ट्रपति बने तो वह नई सरकार, नए जनादेश का जहां प्रतिनिधि होगा तो शीर्ष से नीचे तक परिवर्तन के साथ नई शुरुआत, अगले पूरे पांच साल निश्चितता, तारतम्यता से राजकाज बनवाने वाला होगा।

क्या यह संभव है? बिल्कुल है। अपना मानना है यदि 2022 में यह काम हो जाए तो प्रधानमंत्री मोदी की आजाद भारत के 75वीं वर्षगांठ पर देश के लोकतंत्र, चुनावी राजनीति, व्यवस्था को सुधारने का वह ऐतिहासिक अविस्मरणीय काम होगा। वैसे यह चिंता अपनी जगह है किराष्ट्रपति से सरपंच के चुनावों को एक सांचे, एक समय, एक निश्चित अवधि में बांधना जोरजबरदस्ती है। तानाशाही का खतरा है। खतरा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहीं एक साथ चुनाव का ऐसा ढांचा न बना डालें, जिससे रूस में जैसे चुनाव होते हैं वैसे भारत में चुनाव होने लगें। तब संघीय ढांचा गड़बड़ाए। नगरपालिका, पंचायत के चुनाव कई राज्यों में वहां की सरकार, अपनी अलग वोटर लिस्ट से करवाती है। अभी सब विकेंद्रित है और राजनीतिक उठापटक में सदन का कार्यकाल गड़बड़ाता है। मतलब जिंदा कौम की जिंदा राजनीति क्यों निश्चित समय अवधि में बंधे और क्यों यह नहीं हो कि जिंदा कौम जब चाहे तब चुनाव हो। पंचायत-लोकल राजनीति का अलग चुनावी पर्व हो तो राज्यों का अलग और केंद्र सरकार याकि लोकसभा में राष्ट्र चिंता का चुनावी त्योहार अलग होना चाहिए। जितने पर्व होंगे उतना लोकतंत्र मजेदार और जिंदादिल होगा।

यह बात अनुभव की कसौटी में, 1952 के बाद से अब तक के अनुभव में ज्यादा फायदे वाली साबित नहीं है। एक साथ सभी चुनाव से संसाधनों की बचत और देश की ऊर्जा का राजकाज पर जैसा फोकस बढ़ेगा उसके फायदे बेइंतहा और स्थायी तौर पर होने हैं। तभी तीन दिन पहले अच्छी खबर थी कि प्रधानमंत्री दफ्तर में लोकसभा, विधानसभा और नगरपालिकाओं की साझा मतदाता लिस्ट बनाने पर विचार हुआ। यह छोटी सी बात है लेकिन टेढ़ा काम है। दरअसल नगरपालिका और पंचायत चुनाव राज्य सरकारें करवाती हैं और लोकसभा व विधानसभा चुनाव अलग व्यवस्था में चुनाव आयोग से होते हैं। तभी या तो संविधान की धारा 243के और 243जेडए में संशोधन कर सभी चुनावों के लिए एक मतदाता सूची की अनिवार्यता बनवाई जाए या राज्य सरकारों को अपने-अपने राज्यों के कानून बदलने के लिए कहा जाए ताकि नगरपालिका, पंचायत चुनाव चुनाव आयोग की मतदाता सूची से कराए जाना संभव हो। मतलब राज्यों के चुनाव आयोग की जगह केंद्र के चुनाव आयोग से सबकुछ संचालित हो।

एक साथ चुनाव के मसले में मतदाता लिस्ट के पहलू से अधिक पेचीदामसला सभी के कार्यकाल को एक साथ, एक अवधि में बांधने का है।यह कैसे हो? दारोमदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इच्छाशक्ति पर है। लोकसभा और राज्यसभा में कानून, संविधान संशोधन से ऐसा हो सकना अब मुश्किल नहीं है। सवाल है क्या इसकी सोच सरकार में है?पर यदि ऐसा होता तो बिहार विधानसभा का चुनाव अभी क्या टलना नहीं चाहिए?नरेंद्र मोदी ने कोरोना को अवसर बताया है तो चुनाव सुधार का यह अवसर क्यों नहीं? बिहार में वायरस जितना फैला है और नवंबर तक वह जितना फैलेगा उसके सिनेरियो में विधानसभा चुनाव निश्चित ही टलने चाहिए। इसके बाद 2021 के विधानसभा चुनावों को भी नहीं कराना चाहिए। वायरस के पीक में चुनाव कराना लोगों की जान से खेलना है।

मतलब विधानसभाओं के चुनाव नहीं कराने का आज ठोस बहाना उपलब्ध है तो एकसाथ चुनाव की योजना का अवसर क्यों नहीं बने? पर तब सरकार को लोकसभा चुनाव पहले कराने पर सोचना होगा। 2024 तक विधानसभाओं के चुनाव नहीं टाले जा सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी को अपने कार्यकाल को छोटा कर, देश हित में एक साथ सभी चुनाव का पैंतरा चलना चाहिए। इसमें अधिक जोखिम नहीं है। राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और बिखरे विपक्ष की हकीकत में वे सन् 2020-23 में पूरे देश, अधिकांश विधानसभाओं, पंचायतों, नगरपालिकाओ में भगवा तख्तपोशी के साथ 2027-28तक का जनादेश मजे से पा जाएंगें। फिर भले आजाद भारत की 75वीं वर्षगांठ पर भारत के 138 करोड़ लोग भले क्यों न 1947 से पहले जैसी दशा-दिशा में पहुंचे हुए बरबाद हों।

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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