सर्वोच्च न्यायालय का फैसला महिलाओं का मंदिर-प्रवेश

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केरल के सबरीमाला मंदिर के देवस्वम बोर्ड ने अचानक शीर्षासन कर दिया है। जब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सितंबर 2018 में हर उम्र की औरत को मंदिर में प्रवेश की इजाजत दे दी थी, तब इस संचालन-मंडल ने तो उस निर्णय का विरोध किया ही, उसके साथ केरल की भाजपा और कांग्रेस ने भी उसकी धज्जियां उड़ा दीं। इन राजनीतिक दलों ने बड़ी बेशर्मी से अदालत के फैसले का विरोध किया, धरने दिए, प्रदर्शन किए और सभाएं की।

हिंदुत्व की रक्षा के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन भी इस पाखंड में फंस गए। इनमें से कोई भी यह नहीं बता सका कि रजस्वला महिलाओं (10 से 50 साल) का मंदिर में प्रवेश निषिद्ध क्यों हैं? यदि वह इसलिए है कि मंदिर के देवता आयप्पा ‘नैष्ठिक ब्रह्मचारी’ हैं तो मैं पूछता हूं कि क्या उनका ब्रह्मचर्य इतना कमजोर है कि पवित्र भाव लेकर मंदिर आई पुजारिनों की उपस्थिति से वह भंग हो जाता है ?

ऐसा नहीं हैं। यह शुद्ध पाखंड है। पत्थर की मूर्ति को क्या पता कि कौन औरत रजस्वला है और कौन नहीं ? इस पाखंड का केरल की मार्क्सवादी सरकार ने डटकर विरोध किया। उसने मंदिर-प्रवेश के समर्थन में लाखों महिलाओं की मानव-श्रृंखला खड़ी कर दी थी। लेकिन देश की राजनीति में इतनी गिरावट आ गई है कि किसी भी उल्लेखनीय नेता ने इस महिला अधिकार का समर्थन नहीं किया।

भारत की राजनीति सिर्फ वोट और नोट कबाड़ने का धंधा बनकर रह गई है। सर्वोच्च न्यायालय में 60 से भी ज्यादा याचिकाएं इसलिए लगा दी गईं कि वह अपने फैसले पर पुनर्विचार करे। सबरीमला मंदिर के बोर्ड के इस ताजा फैसले ने इन याचिकाओं को पंचर कर दिया है। दो बहादुर महिलाओं ने पहले ही मंदिर-प्रवेश करके दिखा दिया है। अब 12 फरवरी से शुरु होनेवाली कुंभम् उत्सव के मौके पर सैकड़ों-हजारों महिलाएं मंदिर प्रवेश करेंगी।

केरल सरकार को सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करना होगा और मैं आशा करता हूं कि हमारे हिंदुत्ववादी संगठन और राजनीतिक दल अपने दुराग्रह से मुक्त हो जाएंगे।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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