मशहूर वकील कपिल सिब्बल ने भारत की न्यायपालिका से जानना चाहा है कि नागरिकों के लिए न्याय की उपलब्धता आवश्यक कार्य की श्रेणी में आता है या नहीं। उनका कहना है कि जिला अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत तक नागरिक न्याय के लिए भटक रहे हैं। हालांकि उच्च अदालतों में वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए कुछ जरूरी मामलों की सुनवाई हो रही है पर ज्यादातर मामले लंबित हैं। कपिल सिब्बल वकील हैं। न्यायिक कार्य उनका सरोकार है और इसलिए उन्होंने इस बारे में सवाल उठाया। पर क्या किसी शिक्षाविद ने, किसी विश्वविद्यालय के कुलपति ने, किसी लेखक ने यह सवाल उठाया है कि शिक्षा क्यों आवश्यक कार्य नहीं है? भारत सरकार ने कोरोना वायरस से लड़ने के लिए पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा करते समय ही गैर जरूरी कामों की जो सूची बनाई उसमें शिक्षा को शामिल कर दिया और ऐसा छात्रों की सुरक्षा के नाम पर किया गया।
हर व्यक्ति अपने जीवन का एक लंबा कालखंड, जो बेहद मूल्यवान भी होता है, स्कूल-कॉलेजों में बिताता है। शिक्षा और उसके अनिवार्य फलादेश के रूप में जो डिग्री मिलती है वहीं अंततः व्यक्ति के जीवन की आधारशिला बनती है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में क्या बनेगा, यह उसे मिलने वाली शिक्षा और उसकी डिग्री से तय होता है। हो सकता है कि इसके कुछ अपवाद भी हों, जैसे हर नियम के होते हैं। पर वहीं काम अगर गैर जरूरी कार्य की श्रेणी में आ जाए तो सोच सकते हैं कि 20 साल तक पढ़ाई करने वाला कोई व्यक्ति यह क्यों नहीं सोचे कि उसने अपने जीवन के दो दशक एक गैर जरूरी काम में गंवा दिए?
लगभग हर व्यक्ति बचपन से सुनता आया होगा कि कि पढ़ाई सबसे जरूरी है। ‘पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब’ वाला जुमला भी सबने अपने जीवनकाल में कभी न कभी सुना ही होगा। पर कोरोना वायरस के इस दौर में शिक्षा वैसे ही गैरजरूरी कार्य बन गया है, जैसे सिनेमा हॉल में जाकर फिल्में देखना या रेस्तरां में जाकर भोजन करना। स्कूल-कॉलेज वैसी ही गैरजरूरी जगहें हैं, जैसे रेस्तरां या सिनेमा हॉल या शॉपिंग मॉल्स हैं। यह ज्ञान और बुद्धि के अपमान की एक और मिसाल है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि एक महीने से ज्यादा की लॉकडाउन की अवधि में कभी भी इस बात पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया कि स्कूल-कॉलेज और दूसरे शिक्षण संस्थान बंद हैं तो उन्हें कैसे चालू किया जाए या उन्हें चालू किए बिना कैसे शिक्षा को छात्रों तक पहुंचाया जाए। शिक्षा को छोड़ कर दूसरी तमाम चीजों के बारे में विचार हुआ है। उसे लोगों तक पहुंचाने के उपाय हुए। खान-पान की चीजों और मेडिकल जरूरतों के अलावा मनोरंजन भी घर तक पहुंचाने का बंदोबस्त हुआ।
कुछ शिक्षण संस्थानों ने जरूर अपनी तरफ से ऑनलाइन क्लासेज या स्मार्ट फोन के कुछ एप्स के जरिए पढ़ाई का प्रयास किया पर उसका कोई खास मतलब नही है क्योंकि इस तरह से शिक्षा को सभी छात्रों तक नहीं पहुंचाया जा सकता है। इसके लिए लैपटॉप, कंप्यूटर, स्मार्ट फोन, नेट कनेक्शन जैसी कई चीजों की जरूरत है, जो हर किसी के पास उपलब्ध नहीं है। इसके बावजूद अगर यह सरकारों के सरोकार में होता, शिक्षा की कद्र होती या इसे जरूरी कार्य माना जाता तो कोई न कोई रास्ता जरूर निकलता। जैसे सरकार ने दूरदर्शन के जरिए देश के लोगों को तीन दशक से ज्यादा पुराने धार्मिक सीरियल दिखा दिए, वैसे ही दूरदर्शन के जरिए देश भर के छात्रों को पढ़ाया भी जा सकता था। ऑनलाइन क्लासेज की बजाय अगर सरकार ने दूरदर्शन पर क्लास लगाने के बारे में सोचा होता तो इससे करोड़ों बच्चों को फायदा होता। यह कोई बहुत मुश्किल भी नहीं था। कुछ समय पहले तो शिक्षा के लिए दूरदर्शन का अलग चैनल शुरू हुआ था। ऐसे ही दूरदर्शन के किसी चैनल पर अलग-अलग कक्षा के छात्रों के लिए अलग-अलग समय में अलग-अलग विषय की पढ़ाई कराई जा सकती थी। दूरदर्शन हर डीटीएच प्लेटफॉर्म पर मुफ्त में उपलब्ध है और इसके जरिए सभी छात्रों तक नहीं तब भी ज्यादा से ज्यादा छात्रों तक पहुंचा जा सकता था।
लेकिन ऐसी कोई पहल तब होती, जब शिक्षा सरोकारों की सूची में शीर्ष पर होता या शीर्ष दस विषयों में होता। ऐसा नहीं है कि सिर्फ कोरोना संकट के समय ही ऐसा हुआ है कि शिक्षा को गैर जरूरी कार्य माना गया है। वैसे भी शिक्षा और शिक्षक इस देश की प्रशासनिक और समाज व्यवस्था में कोई बहुत अहमियत नहीं रखते हैं। अगर कोरोना वायरस की वजह से देश के शिक्षक घरों में नहीं बैठे होते तो इस समय राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर, एनपीआर अपडेट करने और जनगणना के काम में लगे होते। चूंकि कोरोना की वजह से जनगणना और एनपीआर का काम स्थगित है इसलिए शिक्षक भी फुरसत में हैं। अन्यथा सरकारें तो फसल की कटाई और मनरेगा की मजदूरी छोड़ कर बाकी सारे काम शिक्षकों से कराती हैं। इस देश में मामूली वेतन में और ठेके पर जितने शिक्षक अध्यापन का कार्य कर रहे हैं, उतना और कोई काम संभवतः ठेके पर नहीं होता है। यह भी इस बात का सबूत है कि शिक्षा सरकारों के लिए कोई खास महत्व का काम नहीं है। शिक्षा पर होने वाले खर्च, विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में होने वाले निवेश, शिक्षकों को मिलने वाले वेतन-भत्ते आदि को देखेंगे तो स्थिति और स्पष्ट होती है।
असल में सरकारों ने शिक्षा को बहुत सुनियोजित तरीके से गैर जरूरी कार्य बनाते हुए उसे निजी हाथों में जाने दिया है। जिसके पास पैसे हैं उनके बच्चे ऐसे संस्थानों में पढ़ रहे हैं, जो कोरोना संकट के बावजूद ऑनलाइन क्लासेज आयोजित कर दे रहे हैं। उन्हें कोरोना संकट से कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्हें दिहाड़ी मजदूरों से कम वेतन पर और ठेके पर रखे गए शिक्षकों से नहीं पढ़ना है। वे विषय के विशेषज्ञों से पढ़ते हैं। बाकी सारे छात्रों के लिए शिक्षा एक गैरजरूरी कार्य है। तभी इस गैरजरूरी कार्य को पूरा करने के बाद उन्हें क्या हासिल होना है यह भी सबको पता होता है।
अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)