वे बदनामी के सहारे ही जीते हैं

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नए साल की शाम जब हम सब एक-दूसरे को बधाई दे रहे थे, उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में गंगा की शानदार डॉल्फिन को कुल्हाड़ी और लाठियों से पीट-पीटकर मारने का एक वीडियो बन रहा था। हैरान डॉल्फिन जाल से निकलने के लिए तड़प रही थी। फिर उसे अहसास हुआ कि बचना नामुमकिन है, उसने हार मान ली और पानी में उखड़ती सासों के साथ पड़ी रही। नहर का पानी उसके खून से लाल हो गया।

डॉल्फिन एक होशियार जीव है, जिसमें हमारी जैसी भावनाएं होती हैं। यह विलुप्तप्राय प्रजाति है और भारत की राष्ट्रीय जलीय जीव है। यह उस देश में बहुत मायने नहीं रखता, जहां जंगली जीवों का शिकार और सड़क के जानवरों को मारना लोकप्रिय खेल है और अब भी जानवरों की बलि दी जाती है। लेकिन मुझे चौंकाया उन युवाओं के चेहरों की चमक ने, जो डॉल्फिन को मार रहे थे। यह स्पष्ट था कि उन्हें मारने में आनंद आ रहा था।

वीडियो वायरल हो गया। पीड़ा का आनंद लेने वाले ऐसे वीडियो पसंद करते हैं। उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि किसे मारा जा रहा है। ऐसे वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत व्यूज बटोरते हैं, इसीलिए कैमरे के सामने खुलकर जानवरों के साथ निर्ममता होती है। अपराध जितना हिंसक होगा, उतना असर पड़ेगा।

चूंकि डॉल्फिन की हत्या वन्यजीव सुरक्षा अधिनियम, 1972 की धारा 9/51 के तहत दंडनीय है, इसलिए मैंने सुना है कि FIR दर्ज हुई और तीन हत्यारे (सभी की उम्र 20 साल से कम) गिरफ्तार हुए। चूंकि हम जानते हैं कि यूपी में कैसे काम होते हैं। हमें नाराजगी दिखाए जाने से ज्यादा उम्मीद नहीं है।

अगर पिछले अगस्त प्रधानमंत्री मोदी ने विलुप्तप्राय प्रजाति को बचाने के लिए प्रोजेक्ट डॉल्फिन की घोषणा न की होती, तो शायद स्थानीय सांसद ने उनका फूल-माला से स्वागत कर दिया होता।

ऐसा सिर्फ यूपी में नहीं हुआ। चेन्नई से एक वीडियो आया था, जिसमें युवा मेडिकल छात्र ने एक कुत्ते को बिल्डिंग की छत से फेंक दिया था। कुत्ते को सड़क से उठाकर छत पर लाया गया और उसे संकरे किनारों पर खड़ा कर दिया। वह डरा हुआ था और संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। युवक ने फिर उसे उठाकर नीचे फेंक दिया। उसकी चीख कानों से खून निकालने वाली थी।

यह भी वायरल हुआ था। उस युवक और वीडियो बनाने वाले उसके साथी को छोटा-मोटा जुर्माना लगाकर छोड़ दिया गया। उनसे प्रेरणा लेकर, वेल्लूर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज के 21 साल के मैकेनिकल इंजीनियरिंग छात्र ने एक महीने के पिल्ले को छत से फेंक दिया और इसका वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट किया। पिल्ला तुरंत मर गया।

पशु कार्यकर्ताओं ने उसे खोजा और उन्हें पता चला कि वह पहले भी आवारा पिल्लों को मारने के वीडियो बनाता रहा है। नहीं, उसे इसका अफसोस भी नहीं है। उसने रिपोर्टर से कहा, ‘मैंने कुत्ते को मारा है, इंसान को नहीं।’

आपने ध्यान दिया होगा कि मैंने दोषियों के नाम नहीं दिए। मैं उन्हें और पब्लिसिटी देना नहीं चाहता। ऐसे लोग बदनामी के सहारे ही जीते हैं। इससे उनका आत्म-सम्मान बढ़ता है। इसीलिए वे खुद को फिल्माने देते हैं। वे जानते हैं कि लाखों लोग वीडियो देखेंगे। एक ही सिक्के के दो पहलू, शोहरत और बदनामी का इनाम उन्हें तुरंत मिल जाता है। बतौर सजा 100 रुपए का जुर्माना देने में क्या हर्ज है, जब उन्हें लाखों लोगों में पहचान मिल गई?

लेकिन निर्दयता अमीबा की तरह है। यह तेजी से फैलती है, जिससे और भयानक अपराध होते हैं। अगर आप अन्य प्रजातियों के प्रति सहानुभूति नहीं दिखा सकते, तो अपनी को भी कभी नहीं दिखा सकते। इसीलिए 6 महीने के शिशुओं के दुष्कर्म और हत्या की खबरें आती हैं और 80 साल की बुजुर्ग की भी।

नहीं, निर्दयता सिर्फ जीने का एक तरीका है। मुंबई में पिछले हफ्ते चेकर्ड कीलबैक (ढोरिया सांप) को सिर पर कंडोम पहनाकर मारने वाला आदमी, हैदराबाद की व्यस्त सड़क पर दिनदहाड़े एक व्यक्ति को कुल्हाड़ी से मारने वाले आदमी से अलग नहीं है। कारें गुजरती रहीं, राहगीर उसे फिल्माते रहे। वीडियो वायरल हुआ। आवारा कुत्तों की पूंछ पर पटाखे बांधकर दिवाली मनाने वाले बच्चे किसी दिन बड़ी हिंसाओं में भाग लेंगे। ये असंबद्ध घटनाक्रम हैं। ये समान जीवनचक्र का हिस्सा हैं।

1990 की फिल्म हवाना का किरदार रॉबर्ट रेडफोर्ड कहता है कि अगर एक तितली किसी फूल पर चीन में पंख फड़फड़ाती है, तो उससे कैरिबियन में तूफान आ सकता है। यह भी कहता है कि वैज्ञानिक ‘आशंकाओं की गणना कर सकते हैं।’ वे ऐसा कर पाएं या नहीं, लेकिन हिंसा को खुद को तेजी से फैलाने की आदत है। हम जगमग हाइवे और तेज ट्रेनों से नहीं जीते। हम नैतिक नियमों पर जीते हैं। एक बार ये नैतिक नियम टूटते हैं, तो कुछ भी हो सकता है। और जब कुछ भी होता है, तो वह होता जरूर है।

प्रीतीश नंदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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