कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई विपक्षी दलों की बैठक में कई खास चेहरों की नामौजूदगी से एक बार फिर अन्तर्विरोधों की चर्चा है। हालांकि बैठक में खासतौर पर वाम दलों के नेताओं सीताराम येचुरी और डी. राजा का जिक्र किया जा सकता है। चौंकाने वाली अनुपस्थिति द्रमुक और टीडीपी ही रही। वैसे महाराष्ट्र में कांग्रेस की मदद से सरकार चला रही शिवसेना भी गायब थी। कहा यह गया कि उसे बैठक के बारे में संदेश नहीं मिला था। तृणमूल कांग्रेस, सपा और बसपा ने भी बैठक से दूरी बनाए रखी। जबकि बैठक का कोर एजेंडा हाल ही में संसद से पारित नागरिकता संशोधन कानून की वापसी के लिए मोदी सरकार पर दबाव डालने की भावी रणनीति तय करने का था। यही नहींए एनपीआर को लेकर भी कहा यह गया कि इसका इस्तेमाल सरकार एनआरसी में करेगी। इसलिए इस पूरे पैकेज को ठंडे बस्ते में डालने के लिए सरकार को कैसे विवश की जायेए उस बारे में विस्तार से सभी विपक्षी दलों की राय जानने के लिए बैठक बुलाई गयी थी।
इसे इसलिए भी विपक्षी राजनीति में अहम माना जा रहा था कि जिस तरह सीएए-ृएनसीआर और प्रस्तावित एनआरसी तो लेतर देशभर में विरोधी दल लोगों के साथ सड़क पर उतर कर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, उससे मोदी सरकार के खिलाफ एक विपरीत धारणा बन रही है, इसमें दो राय नहीं। यही वजह है कि 13 जनवरी की बैठक पर सबकी नजर लगी थी, भाजपा की तो विशेष रूप से। पर बैठक से कई दिन पहले विपक्ष के खेमे में जिस तरह के राजनीतिक घटनाक्रम हो रहे थे, उससे बैठक के नाकाम होने के आसार दिखने लगे थे। तृणमूल कांग्रेस नेत्री ममता बनर्जी ने बैठक से किनारा ही नहीं किया, बल्कि प्रतिनिधि के तौर पर अपने यहां से किसी को भी दिल्ली नहीं भेजा। उनकी नाराजगी भारत बंद के दिन कांग्रेसवामदलों की तरफ से पश्चिम बंगाल में कई जगह तोडफ़ोड़ को लेकर थी। आखिरकार राज्य की मुख्यमंत्री हैं वो। कानून-व्यवस्था बिगड़ती है तो इसके लिए सीधे उन्हीं की जिमेदारी बनती है।
हफ्तों से उनके नेतृत्व में नागरिकता कानून के विरोध में धरना-प्रदर्शन और पैदल मार्च होते रहे लेकिन सब कुछ शांति के साथ होता रहा। हालांकि देश के स्तर पर आंदोलन को धार देने के लिए उन्होंने खुद ही सोनिया सहित अन्य भाजपा विरोधी नेताओं से बात की। सबसे एक होने की अपील की थी। पर राज्य की राजनीति में कांग्रेस-वाम की बढ़ती रुचि उन्हें तनिक भी पसंद नहीं। यही वजह है कि मौका आते-आते सारी एकता फुस्स हो जाती है। बसपा-सपा का भी यही हाल है। जिस तरह कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने यूपी में अपनी गतिविधियां बढ़ाई हैं और खासतौर पर नागरिकता कानून विरोध के बहाने मुसलमानों-दलितों में पैठ बढ़ाने की कोशिश की है। उससे अखिलेश यादव और मायावती दोनों कांग्रेस से नाराज हैं। स्वाभाविक हैए इन क्षेत्रीय पार्टियों का जो जनाधार है, उस पर ही कांग्रेस की नजर है। ऐसे में दोनों दलों ने किनारा करना ही मुनासिब समझा। द्रमुक ने शिरकत क्यों नहीं की, यह जरूर अभी अबूझ है।
टीडीपी का तो समझ में आता है, उसके नेता चंद्रबाबू नायडू ने 2019 में विपक्षी एकता की बड़ी कोशिश की थी पर ना तो अपना राज्य बचा पाये और ना ही केन्द्र में मोदी को रोक पाए। तो इन दिनों ऐसी किसी भी कोशिश से किनारा करने में उन्हें अपना हित नजर आता है। बाकी बीजद और टीआरएस या फिर जगन रेड्डी की कांग्रेस एक तरह से तटस्थ अपनी राज्य की राजनीति में फिलहाल व्यस्त है। शिवसेना की मजबूरी तो है लेकिन वो भी कांग्रेस के स्थापित आग्रह से धर्मसंकट में पड़ जाती है। इसलिए उसे पता है कि कांग्रेस से महाराष्ट्र तक दोस्ती ठीक हैए इसके आगे दोस्ती निभाने पर भाजपा को मौका मिल सकता है। इस तरह विपक्ष का अन्तर्विरोध ही उसकी उम्मीदों पर हर बार पानी फेर देता है। भाजपा को तो बस उसका लाभ मिलता है। दिल्ली की बैठक में खास चेहरों की नामौजूदगी का यही संदेश है, जिसे साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। बाबजूद इसके भाजपा के लिए बदहाल अर्थव्यवस्था की चुनौती बड़ी है और इसे समय रहते मोदी सरकार ने ही निपटाया तो फिर राजनीतिक अस्थिरता का देश एक बार फिर शिकार हो सकता है।