वाह! उनका खेलना और जीना!

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क्‍या होता है सर्वोत्तम, श्रेष्ठतम, उत्कृष्टतम याकि एक्सीलेंस? हम भारतीय इनके अर्थ जानते हुए भी वह फील, वह समझ लिए हुए नहीं हैं, जिससे सोच भी पाए कि कैसे हैं वे लोग और हम..! मैं पिछले दो महीने से क्रिकेट की ठुक-ठुक में भारतीयों के टाइम पास को देख रहा हूं। टेनिस का फ्रेंच ओपन हुआ, फुटबाल का महिला विश्व कप निपटा, विम्बलडन हुआ, लेकिन आठ-नौ देशों की टीमों का क्रिकेट विश्व कप चलता ही रहा! इतनी लंबी ठुक-ठुक इसलिए क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप दुनिया का वह बाजार है, जहां ठुक-ठुक पर उल्लू बना कर भरपूर कमाई संभव है। मुझे उस दिन बहुत कोफ्त हुई जब फ्रेंच ओपन का फाइनल था और भारत में क्रिकेट की भेड़ियाधसान में एक भी चैनल ने उसे नहीं दिखाया। गनीमत जो कल क्रिकेट के फाइनल में भारत नहीं था अन्यथा विम्बलडन टेनिस का फाइनल भी देखने को नहीं मिलता।

और वह फाइनल! सर्वोत्तम, श्रेष्ठतम, उत्कृष्टतम याकि एक्सीलेंस में एक-एक बिंदु, एक-एक शॉट से क्षण-क्षण यह फील कि काया, दिमाग और फुर्ती, चपलता, ताकत व बुद्धि का ऐसा चरम एलगोरिदम भी क्या कोई खिलाड़ी लिए हुए हो सकता है! एक गेंद की ओर भागती आंखों के साथ शरीर के दौड़ते, फुदकते, कूदते, लपकते दिमागी हिसाब पर ताकत से शॉट यदि खेल और खिलाड़ी का चरम नहीं है तो भला क्या है? और अपना मानना है ऐसा चरम जिंदादिल कौम के जिंदादिल खिलाड़ियों से ही संभव है।

फेडरर और जोकोविच का विम्बलडन फाइनल सर्वोत्तमता और एक्सीलेंस की अद्भुत बानगी थी। मगर ऐसा विम्बलडन के सेमी फाइनल में फेडरर व नाडाल के मुकाबले के वक्त भी था तो फ्रेंच ओपन में नाडाल के सेमीफाइनल ने भी ऐसा अहसास कराया था।

विम्बलडन फाइनल में पौने पांच घंटे के पांच सेट के मुकाबले में 37 साल के फेडरर ने जो दम दिखाया और बावजूद इसके जोकोविच ने हार नहीं मानी और उसने टाई ब्रेक में खिताब जीता तो जाहिर हुआ कि यूथ और विज्डम में आज का टेनिस विज्डम याकि अनुभव के साथ पके दमखम में ज्यादा खेला जा रहा है। फेडरर और जोकोविच व नाडाल इतने सालों से आमने-सामने लगातार खेल रहे हैं कि इनके लिए जीतना-हारना किलिंग इंस्टीक्ट का तत्व है तो सत्व यह है कि अच्छा और श्रेष्ठतम खेलते जाना। खेल का एक-एक पल, एक-एक शॉट इस धुन, लगन के साथ कि छोड़ना नहीं है। कोई कमी नहीं रहने देनी है। गेम हारते, सेट हारते, मैच गंवाने के आखिरी प्वाइंट में बेचैनी भले शाट को गड़बड़ा दे, सर्विस में डबल फॉल्ट बनवा दे लेकिन फिर तुंरत संभलते हुए अगला प्वाइंट अपना बना लेना वह मामला है, जिसे तपस्वी की ध्यानावस्था का अल्टीमेट कह सकते हैं।

सोचें, 37 साल की उम्र के फेडरर की सौ-सवा सौ किलोमीटर की रफ्तार वाली सर्विस और शॉट के साथ प्वांइट ले कर या गंवा कर अगले प्वांइंट के लिए निर्विकार भाव आगे बढ़ना क्या दिल-दिमाग-शरीर पर नियंत्रण की वह चरम सिद्धि नहीं है, जिसे देखते हुए सोचने वाला सोचेगा ही कि यह सब कैसे संभव! आज की टेनिस ऐसे कई खिलाड़ियों को लिए हुए है। फेडरर, जोकोविच, नाडाल, सेरिना विलियम्स। हिसाब से इन्हें सालों पहले रिटायर हो जाना चाहिए था। सर्वाधिक ताकत वाले टेनिस के इस एकल खेल में पिछली सदी में तीस साल की उम्र बाद भी खेलते रहने वाले खिलाड़ी बिरले थे। फेडरर ने जूनियर से 19 साल की उम्र से विम्बलडन खेलना शुरू किया। आम तौर पर 25-27 साल की नौजवान, यूथ ताकत टेनिस में एवरेस्टी मुकाम होता है लेकिन फेडरर, नाडाल, जोकोविच, सेरिना ने इसे गलत साबित किया है। इन जैसी चढ़ाई करता कोई नौजवान महाबली आज नहीं दिख रहा है तो वजह शायद यह है कि यूथ जैसी फिटनेस वाली नौजवान साधना करते हुए फेडरर, नाडाल, जोकोविच अपने पके हुए दिमाग के विज्डम से भी खेल रहे है। तभी अपारजेय स्थिति में है। ये सब एवरेस्ट पर टिक कर बैठ उसी एवरेस्टी कोर्ट में खेल रहे है। नए खिलाड़ी आते है, झंडा गाड़ नीचे लौट जाते हैं लेकिन फेडरर, नाडाल, जोकोविच को नीचे उतरने की जरूरत ही नहीं है।

इनके समकालीन में फुटबाल, एथेलेटिक्स (उसेन बोल्ट), बास्केटबॉल के संभवतया सभी शिखर खिलाड़ी रिटायर, आउटडेटेड हो गए हैं लेकिन टेनिस में अनहोनी बनी हुई है। इस बार फेडरर, नाडाल और जोकोविच तीनों को खेलते हुए देख लगा कि इनका खेल पूर्णता में अब सिर्फ यह भाव लिए हुए है कि हमें तो श्रेष्ठतम खेलते रहना है। इसे इन्होंने अपना तपस्वी धर्म माना हुआ है।

मैं खेल को तपस्या और खिलाड़ी को सिद्धि की धुन लिए तपस्वी मानता हूं। पुरानी थीसिस है कि दुनिया में जिंदादिल कौम की पहचान कौम के खिलाड़ी तपस्वियों से भी होती है। मानव सभ्यता के इतिहास में जिन्होंने भी सर्वोच्चता, ऐश्वर्यता, सर्वोत्तमता का सुख भोगा है वे खेलकूद में अनिवार्यतः सिद्धि लिए हुए रहे हैं। यूनान के ओलंपिक व रोम साम्राज्य के स्टेडियमों में ताकत लिए लड़ने वाले ग्लैडिटियर से ले कर पिछले दो-सौ तीन सालों के आधुनिक फुटबाल, एथेलेटिक, टेनिस, बास्केटबॉल ऐसे वे खेल हैं, जिनके साथ हम बूझ सकते हैं कि वक्त पूंजीवाद बनाम साम्यवादी कंपीटिशन का हो या पूंजीवाद व भूमंडलीकरण में वैभव प्रदर्शन का हो, जिंदादिल कौम वहीं थी, वहीं है जो खेलों की जिंदादिली में अपने आपको सिद्धि प्राप्त प्रमाणित करती रही है। तभी उन्हीं का जीना, जीना भी रहा है। और वह जीना हम जैसों का ठुक, ठुक वाला रत्ती भर नहीं रहा है!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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