राजनीति में मास्टरस्ट्रोक उस दांव को कहते हैं, जिसमें साम, दाम, दंड और भेद के चारों ज्ञात उपायों के सहारे कोई भी पार्टी या नेता अपने हित पूरे करता है। जबकि नैतिकता बिल्कुल अलग चीज है, जिसके लिए राजनीति में कोई स्थान नहीं है। राजनीति हमेशा नैतिकता से निरपेक्ष रहती है। राजनीति का कोई स्थायी या प्रमाणित नीति-सिद्धांत नहीं होता है। वह राज करने की नीति होती है और देश, काल व परिस्थितियों के सापेक्ष होती है। जबकि नैतिकता के स्थापित नियम होते हैं और वह देश व काल से निरपेक्ष होती है। इन स्थापित नियमों से विचलन को अनैतिक कहा जाता है, जबकि राजनीति में कुछ भी अनैतिक नहीं होता है। जब राजनीति में सत्ता हासिल करना अंतिम लक्ष्य है तो उसे हासिल करने के लिए किए जाने वाले उपायों को अनैतिक कैसे कहा जा सकता है?
भारत में हर पार्टी और हर नेता इस बुनियादी सिद्धांत को आत्मसात किए होता है। वह तभी तक वैचारिक व सैद्धांतिक रूप से प्रतिबद्ध बना रहता है, जब तक उसे मौका नहीं मिलता है या उसकी मजबूरी नहीं हो जाती है। राजनीति में कई बार कुछ दांव मौका मिलने पर चले जाते हैं और कुछ मजबूरी में। जैसे लेफ्ट पार्टियों ने पश्चिम बंगाल में कांग्रेस से तालमेल किया तो वह उनकी मजबूरी थी पर भाजपा ने जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ मिल कर सरकार बनाई तो वह एक मौका था, जिसका उसने अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया।
तभी इस समय महाराष्ट्र में चल रहे सियासी नाटक के बीच मास्टरस्ट्रोक बनाम नैतिकता की बहस का कोई मतलब नहीं है। बेकार में कांग्रेस के कुछ नेता चैनलों के एंकर और पत्रकारों से बहस में उलझ रहे हैं। असल में न्यूज चैनलों के एंकर और पत्रकारों के लिए सिर्फ वहीं काम मास्टरस्ट्रोक है, जो भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह करते हैं। उन्होंने पीडीपी के साथ मिल कर सरकार बना ली तो वह मास्टरस्ट्रोक था। उन्होंने गोवा और मणिपुर में कांग्रेस से कम सीटें होने के बावजूद राजभवन का इस्तेमाल कर और विधायकों को तोड़ कर अपनी सरकार बनवा दी तो वह भी मास्टरस्ट्रोक था। बिहार में राजद, जदयू और कांग्रेस का गठबंधन तुड़वा कर वापस जदयू और भाजपा की सरकार बनवा दी तो वह भी मास्टरस्ट्रोक ही था।
पर अब जब महाराष्ट्र में भाजपा और शिव सेना का गठबंधन तोड़ कर गैर भाजपा सरकार बनाने की कवायद हो रही है तो वहां राजनीतिक नैतिकता का सवाल खड़ा हो गया है। जिन लोगों ने कश्मीर, मणिपुर, कर्नाटक, बिहार, गोवा आदि को लेकर भाजपा से एक सवाल नहीं पूछा वे शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी तीनों को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। सवाल है कि जो भाजपा का मास्टरस्ट्रोक था वह शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी के लिए नैतिकता के सवाल में कैसे बदल गया? कायदे से तो इसे इन तीन पार्टियों का मास्टरस्ट्रोक माना जाना चाहिए। ज्यादा बड़ा मास्टरस्ट्रोक माना जाना चाहिए क्योंकि यह विपक्षी पार्टियों का केंद्र में सत्तारूढ़ सर्वशक्तिशाली पार्टी के खिलाफ चला गया दांव है और दांव चलने वालों के सिर पर सीबीआई, ईडी, आय कर विभाग की जांच की तलवार भी लटक रही है! ध्यान रहे शिव सेना के नियंत्रण वाली बृहन्नमुंबई नगर निगम यानी बीएमसी में काम करने वाले बड़े ठेकेदारों के यहां आय कर की छापेमारी शुरू हो गई है।
बहरहाल, यह पत्रकारों की अपनी नैतिकता का सवाल भी है पर यहां उस बहस में जाने की जरूरत नहीं है। वे अपने पूर्वाग्रह में या सत्ता की धमक के असर में चाहे जो कहें पर हकीकत यहीं है कि राजनीति में जो दांव सफल हो जाए वह मास्टरस्ट्रोक होता है, चाहे वह अमित शाह का हो या उद्धव ठाकरे और शरद पवार का हो। और दूसरी बात यह है कि चाहे जिसका मास्टरस्ट्रोक हो वह नैतिकता के मानदंडों के विपरीत होता है। उसका नैतिकता से कोई लेना देना नहीं होता है। राजनीतिक संभावनाओं को साकार करने और अवसरों को भुनाने का खेल है, जिसमें नैतिकता या शुचिता के लिए कोई जगह नहीं होती है। सफलता सारे नैतिक सवालों को ढक देती है।
इस मामले में जो भी दुविधा से ग्रस्त हो उसे गीता पढ़नी चाहिए। पता नहीं कांग्रेस के किसी नेता ने गीता पढ़ी है या नहीं। अगर पढ़ी होती तो महाराष्ट्र में अर्जुन के जैसी दुविधा से घिरी नहीं खड़ी होती। वह अपने लिए सामने खड़े अवसर को चूक नहीं रही होती। वह नैतिकता या विचार-सिद्धांत की भूलभुलैया में भटक नहीं रही होती। उसने समय रहते फैसला कर लिया होता और अपने सबसे बड़े प्रतिद्धंद्वी को एक और दांव में मात दिया होता। पर राजनीतिक दांव चलने में भी वह सिद्धांत, विचारधारा और नैतिकता के झूठे आग्रह में उलझ गई।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं