ये तो नहीं सूचना कानून का सच

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सूचना के अधिकार कानून का सच वह नहीं है, जो शनिवार को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बताया। अमित शाह ने कहा कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार अपने कामकाज में पारदर्शिता बढ़ा रही है इसलिए सूचना के अधिकार कानून के तहत आवेदनों की संख्या में कमी आई है। उन्होंने यह भी कहा कि सूचना के लिए ज्यादा आवेदनों की संख्या अच्छी सरकार की निशानी नहीं होती है। सवाल है कि लोग अगर अपनी सरकार के कामकाज के बारे में जानना चाहते हैं और ज्यादा संख्या में आवेदन करते हैं तो यह कैसे अच्छी सरकार की निशानी नहीं हुई? अच्छी सरकार नहीं होने की निशानी तो यह होगी कि लोग सूचना मांगें और उन्हें न मिले, उनका आवेदन खारिज हो जाए, सूचना अधूरी मिले या जो सूचना मिले उससे पता चले की सरकार अच्छा काम नहीं कर रही है।

कामकाज में पारदर्शिता का दावा करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री ने कहा कि ‘डैशबोर्ड’ के इस्तेमाल से लोग पता कर सकते हैं कि सरकार ने कितने शौचालय बनवाए, सौभाग्य योजना के तहत उन्हें बिजली कब तक मिलेगी और यहां तक कि रसोई गैस का सिलिंडर कब तक मिलेगा, यह भी पता चल जाएगा। सवाल है कि क्या ऐसी ही सूचनाओं के लिए सूचना के अधिकार का इतना लंबा आंदोलन चला था? इसमें संदेह नहीं है कि ऐसी भी सूचनाएं लोगों को चाहिए लेकिन सिर्फ ऐसी ही सूचनाओं के लिए यह कानून नहीं है। दूसरी बात यह है कि इस बारे में लोगों को उतनी ही सूचना मिलती है, जितनी सरकार बताती है। पर सूचना के अधिकार के तहत और भी सूचनाएं हासिल की जा सकती हैं। यह ध्यान रखना जरूरी है कि सरकार जितनी सूचना देती है, उससे ज्यादा छिपाती है या लोगों को बताना गैरजरूरी समझती है।

शौचालय, जन धन खातों और बिजली कनेक्शन की संख्या के अलावा लोग और भी बहुत कुछ जानना चाहते हैं पर सरकार बताती नहीं है। देश की सर्वोच्च अदालत से लेकर आम लोग तक कब से यह जानना चाहते हैं कि जिन कंपनियों और कारोबारियों के ऊपर पांच सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज बकाया है वे कौन लोग हैं, पर सरकारें बताती नहीं हैं। पिछले दिनों एक व्यक्ति ने जानना चाहा कि चुनाव आयोग ने किस आधार पर हर शिकायत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दी थी तो उसे जवाब मिला कि यह बताने से लोगों की जान को खतरा हो सकता है। जब यह पूछा गया कि किन लोगों की जान को खतरा हो सकता है तो चुनाव आयोग ने कहा कि उसके पास इस बात की जानकारी नहीं है कि किन लोगों की जान को खतरा हो सकता है। सोचें, इन दोनों जवाबों पर, फिर अंदाजा लगेगा कि यह कानून किस दशा में है।

सूचना के अधिकार कानून का सच तो यह है कि पिछले पांच साल में इस कानून की आत्मा ही निकाल ली गई है। यह कानून सरकारों को जिम्मेदार बनाने और उनके कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए बनाया गया था। सूचना आयुक्तों को संवैधानिक अधिकार देकर उन्हें सामान्य सरकारी दबावों से ऊपर रखा गया था। पर पिछले दिनों केंद्र सरकार ने इस कानून में संशोधन कर दिया। तमाम विरोधों को दरकिनार करके सरकार ने केंद्रीय सूचना आयोग से लेकर राज्यों में सूचना आयोग में सूचना आयुक्तों की नियुक्ति और उनकी सेवा शर्तों के नियमों को बदल दिया। अब उनकी नियुक्ति, तबादला और सेवा शर्तें तय करने का काम पूरी तरह से सरकार के हाथ में आ गया है। यानी यह सरकार के ढेर सारे विभागों में से एक विभाग बन गया है, जिसका कामकाज सरकार की मर्जी से होगा। सोचा जा सकता है कि सरकार की मर्जी से चलने वाला कोई विभाग सरकार के कामकाज के मामले में कितना पारदर्शी रहेगा!

इस कानून का एक सच यह भी है कि कानून में संशोधन से पहले ही सूचना आयुक्तों की नियुक्तियों में देरी, आवेदन लंबित रखने और खारिज करने जैसे उपायों के जरिए इसे अप्रासंगिक बनाने का काम चालू हो गया था। ध्यान रहे केंद्रीय सूचना आयोग में अब भी सूचना आयुक्तों के चार पद खाली हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद महीनों से नियुक्ति नहीं हो पा रही है। केंद्रीय सूचना आयोग में लंबित आवेदनों की संख्या 30 हजार के करीब हो गई है और देश भर में दस लाख से ज्यादा आवेदन लंबित हैं।

इसका एक पहलू यह है कि मौजूदा सरकार हो या पिछली सरकार रही हो, 2005 में यह कानून लागू होने के बाद से इसके प्रावधानों का इस्तेमाल कर सूचना रोकने का प्रयास हमेशा होता रहा है। करीब सात फीसदी आवेदन खारिज किए जाते हैं। इनमें से 50 फीसदी से ज्यादा आवेदन सिर्फ धारा 8(1) के आधार पर खारिज होते हैं। इसके तहत राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी सूचनाएं नहीं देने का प्रावधान किया गया है। यह सूचना देने से बच निकले की पतली गली नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजमार्ग है।

अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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