कांग्रेस का घोषणा-पत्र तो पहले ही आ चुका था। अब चुनाव के तीन दिन पहले भाजपा का भी आ गया है। भाजपा उसे संकल्प-पत्र कह रही है। यह शब्द ज्यादा अच्छा है, क्योंकि संकल्पों के साथ यह छूट मिल जाती है कि वे पूरे हो भी सकते हैं और नहीं भी! मोदी सरकार के संकल्प पिछले पांच साल में कितने पूरे हुए, यह बताने की जरुरत नहीं है। पांच साल पहले ‘सबका साथः सबका विकास’ का नारा देने वाली सरकार ने इस बार विकास को दरी के नीचे सरका दिया है।
विकास की जगह राष्ट्रवाद और आतंकवाद-विरोध आगे आ गया है। लेकिन यह मुश्किल लगता है कि इस बार इन दोनों मुद्दों पर भाजपा कोई लहर पैदा कर पाएगी। राष्ट्रवाद याने हिंदुत्व के मुद्दों पर चमक पैदा करके वोट खींचने थे तो सरकार को राम मंदिर बना देना था, कश्मीर का मसला हल कर देना था और समान आचार संहिता लागू कर देनी थी। उसने राम मंदिर अदालत के कंधों पर डाल दिया, अतिवादी कश्मीरियों के साथ सरकार बना ली और तीन तलाक का उटपटांग कानून बनाकर अपना दिल खुश कर लिया।
राष्ट्रवादिता के नाम पर गोरक्षकों ने बदनामी लूटी, सांप्रदायिकता बढ़ी, निराधार डर फैला और पूर्वाचल में नागरिकता को लेकर असंतोष बढ़ा। नोटबंदी ने भाजपा की रीढ़ रहे व्यापारियों की कमर तोड़ दी। जीएसटी ने उनका टेंटुआ कस दिया। रफाल-सौदे ने बोफोर्स का रुप धारण कर लिया। मोदी के रफाल विमानों पर राहुल की बोफोर्स तोपों के प्रहार होते रहे।
पुलवामा-कांड का लाभ उठाने की पूरी कोशिश हुई लेकिन उसकी धमक भी फीकी पड़ गई है। कांग्रेस ने किसानों के वोट फंसाने के लिए अपूर्व सुविधाओं की घोषणा की है तो भाजपा ने उन्हें पटाने के लिए अब और भी ज्यादा चूसनियां लटका दी हैं। उसने अपने पुराने वोट बैंक को खींचने के लिए छोटे व्यापारियों को कुछ अपूर्व सहूलियतों की घोषणा की है।
दोनों प्रमुख पार्टियों के घोषणा-पत्र राष्ट्र-निर्माण के नक्शे नहीं हैं। वे वोटखेंचू चुम्बक हैं। मायाजाल है। यदि हमारे नेताओं में दूरदृष्टि और मौलिक बुद्धि होती तो इस तरह के घोषणा-पत्र वे चुनाव के पहले नहीं, चुनाव के तत्काल बाद प्रकाशित करते और उन पर पांच साल में अमल करके दिखाते। उन्हीं के आधार पर वोट भी मांगते।
अब चुनाव के तीन-चार दिन पहले ऐसे घोषणा या संकल्प-पत्र जारी करना लगभग बेमतलब है। दोनों प्रमुख पार्टियों के नेता इन घोषणा पत्रों को लेकर एक-दूसरे की मजाक उड़ा रहे हैं। यह स्वाभाविक है। मतदाताओं पर इनका असर कितना पड़ेगा, कुछ कहना मुश्किल है। लोग अब तक अपना मन बना चुके हैं। जिसे जिसको वोट देना है, वही उसी को देगा।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार है