आम लोगों की आमदनी बढ़ नहीं रही, उलटे दिहाड़ी मजदूरी के भी अवसर कम हो रहे हैं। बाजार में इसीलिए बीते दोकृढाई साल से सुस्ती का माहौल चल रहा है। अभी कुछ दिन पहले खबर आयी कि बीते दिसम्बर माह में खुदरा महंगाई 7.5 फीसदी हो गयी, जिसका साफ असर लोगों की थाली पर पड़ते देखा गया। प्याज, टमाटर और दाल की आसमान छूती कीमतें चर्चा में रहीं। प्याज की कीमतें 150 रुपये प्रति किलोग्राम पहुंच गयी थीं। उस पर काबू पाने के लिए उसका विदेश से आयात करना पड़ा। खुदरा के दाम अब थोक महंगाई दर का जो आंकड़ा सामने आया है, वो भी चिंतित करने वाला है। बीते दिसंबर में थोक महंगाई दर 2.59 फीसदी थी, जो नवंबर में 0.58 फीसदी थी। इससे आम लोगों पर सीधे असर डालने वाली स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। इससे निपटने के लिए व्यक्ति अपनी जरूरतों में कटौती करने को मजबूर होता है जबकि यह सही अर्थों में बचत नहीं बल्कि जीवन चलाने की जद्दोजहद जरूर कहा जा सकता है। अब ऐसी स्थिति में बाजार को उसकी रौनक लौटाना दिवास्वप्न जेसा है।
ठीक है सरकार हर संभव प्रयास कर रही है कि किसी बाजार में चहल-पहल बढ़। कारपोरेट का कर संबंध रियायतों से नवाजा गया है लेकिन उद्योगपति मौजूदा परिदृश्य में निवेश का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है। स्थिति यह है कि जिससे निवेश की उम्मीद पाल सरकार ने मेहरबानियां कीं, वे पैसे लगाने को तैयार नहीं और आम खरीदारों की स्थिति यह है कि खर्चने को हाथ में पैसे नहीं। अब ऐसी स्थिति में एक ही रास्ता बचता है, वो यह कि सरकार आम लोगों का खर्च बढ़ाने के लिए उनकी आमदनी बढ़ाये। विकास केस कारपोरेट मॉडल को कुछ वक्त के लिए मुल्लतवी रखा जा सकता है। जरूरी है, ग्रामीण इलाकों में खर्च बढ़ाने की ताकि उसका सीधा लाभ उनको मिल सके। इससे सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में निश्चित ही जीवन लौटेगा। मनरेगा से लेकर एक बात खास तौर पर उभर कर आयी थी कि उसके तहत मिले आंशिक रोजगार के चलते 2008 में आर्थिक मंदी का ज्यादा असर नहीं दिखा। हालांकि राजकोषीय घाटा 4 फीसदी से ज्यादा हो गया था।
अब, जबकि मोदी सरकार ने तमाम आर्थिक उतार-चढ़ाव के बीच राजकोषीय घोटा 3.5 फीसदी से ऊपर नहीं होने दिया है जिसकी बेशक तारीफ की जानी चाहिए। लेकिन मौजूदा आर्थिक परिदृश्य में सरकारी खर्च बढऩे से यदि हाल फिलहाल के कठिन समय से निपटने में राहत मिल सकती तो है, इसमें खर्च को जोखिम उठाया जाना चाहिए। स्थितियों के सामान्य होने पर उस खर्च की भरपाई की जा सकती है। ऐसे समय में खुदरा के बाद जब थोक महंगाई भी आंखें तरेर रही है तब जरूरी है कि उस पर समय रहते ध्यान दिया जाए, वरना इस तरह महंगाई बेकाबू होने से अर्थव्यवस्था की सुस्त रतार को तेज रखना और चुनौतीपूर्ण होगा। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल की मानें तो अर्थव्यवस्था में ठहराव आ सकता है। दरअसल नरम पड़ती आर्थिक वृद्धि के साथ जरूरत से जयादा ऊंची महंगाई अर्थव्यवस्था का नतीजा यह होता है कि एक समय तक के लिए आर्थिक गतिविधियां ठप पड़ जाती हैं। यह स्थिति काफी चुनौतीपूर्ण होती है। ऐसे परिदृश्य में सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं।
पहली बढ़ती महंगाई को काबू करना और दूसरी, आर्थिक विकास दर में तेजी लाना। बढ़ती महंगाई को काबू करना और दूसरी आर्थिक विकास दर में तेजी लाना। ये दोनों मोर्चे आज की स्थिति में अत्यंत चुनौतीपूर्ण है। रिजर्व बैंक ने भी अब साफ कर दिया कि महंगाई को देखते हुए दिसंबर में नीतिगत प्याज दरें नहीं घटाई गयी थीं। इसका सीधा अर्थ है कि रिजर्व बैंक की अगली समीक्षा बैठक में भी रेपो रेट में कमी की उम्मीद नहीं है। एक उद्योगपति ने हालांकि प्रधानमंत्री से ही किसी करिश्मे की उम्मीद जताई है। बजट से पूर्व तैयारी बैठकों में प्रधानमंत्री की मौजूदगी उनकी गंभीरता और चिंता को बताने के लिए काफी है लेकिन जो आर्थिक हालात हैं, उसमें देश कुछ होते हुए की उम्मीद पाले हुए है। आगे स्थितियां क्या मोड़ लेती है, वक्त बताएगा। पर इसको लेकर विपक्ष हमलावर है। हाल-फिलहाल के नागरिकता कानून को लेकर सड़कों पर एक जंग छिड़ी हुई है।