केंद्र सरकार में एक से एक अनुभवी और पढ़े-लिखे लोग हैं लेकिन समझ में नहीं आता कि जब मंत्रिमंडल की बैठक होती है तो उनकी बोलती बंद क्यों हो जाती है? वे या तो सोचने-विचारने का बोझ नौकरशाहों के कंधों पर डाल देते हैं या फिर डर के मारे चुप्पी साधे रखते हैं। यदि यह सच नहीं है तो क्या नरेंद्र मोदी से नोटबंदी- जैसी भूल कभी हो सकती थी? जीएसटी जैसा लंगड़ा-लूला कानून कभी देश के सामने लाया जा सकता था?
अब नागरिकता संशोधन विधेयक के मामले में भी यही हुआ है। यह तो गृहमंत्री अमित शाह ने अच्छा किया कि पूर्वोत्तर के नेताओं से गहर विचार-विमर्श करके अरुणाचल, नागालैंड, मिजोरम, असम, मेघालय और त्रिपुरा के उन क्षेत्रों में यह कानून लागू नहीं होगा, जिन्हें संविधान की छठी अनुसूची में गिनाया गया है लेकिन यह अजीब-सी बात है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के सिर्फ अल्पसंख्यकों को ही भारत की नागरिकता दी जाएगी।
यानि इन देशों से कोई हिंदू, सिख, ईसाई, जैन या बौद्ध भारत की शरण में आना चाहे तो उसका स्वागत होगा। किसी मुसलमान का नहीं। यह ठीक है कि इन देशों के कुछ अल्पसंख्यक कभी-कभी तंग आकर इन देशों से बाहर निकल जाना चाहते हैं। उन्हें भारत आना अच्छा लगता है लेकिन हमारी सरकार बड़ी भोली है। वह यह मानकर चल रही है कि पड़ौसी मुस्लिम देशों के जितने भी अल्पसंख्यक भारत में अड्डा जमाना चाहते हैं, वे पीड़ित ही होते हैं।
सच्चाई यह है कि उनमें से ज्यादातर सुनहरे भविष्य की तलाश में भारत आते हैं, जैसे कि भारतीय नागरिक अमेरिका जाते हैं। यह कानून भारत को दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा अनाथालय बना दे सकता है। हमारे ये पड़ौसी देश अगर ऐसा जवाबी कानून बना दें कि भारत के अल्पसंख्यकों को वे नागरिकता सहर्ष देंगे तो भारत की कितनी बदनामी होगी, हालांकि कोई भी अल्पसंख्यक भारत छोड़कर पड़ौसी देशों में क्यों जाना चाहेगा?
मंत्रिमंडल के सदस्यों को शायद यह भी पता नहीं कि इन पड़ौसी देशों में कई नागरिक हैं, जो मुसलमान के घर में पैदा हुए हैं लेकिन वे इस्लाम को नहीं मानते, जैसे अफगान प्रधानमंत्री रहे बबरक कारमल, हफीजउल्लाह अमीन और नूर मुहम्मद तरक्कई तथा बांग्लादेश की तसलीमा नसरीन आदि।
इनके साथ आपकी सरकार कैसा सलूक करेगी? बेहतर तो यह हो कि इस विधेयक में से मजहब शब्द को हटा दिया जाए और भारत की नागरिकता चाहनेवाले हर व्यक्ति को उसके गुण-दोष के आधार पर नागरिकता दी जाए और इस मामले में बहुत सतर्कता बरती जाए।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं