भक्ति का अर्थ सिर्फ मंत्र जाप या पूजा नहीं, मन से आस्था और विश्वास रखना है

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शिव महापुराण में भगवान शिव के कई अवतारों की कहानियां है। भगवान शिव ने कुल 19 अवतार लिए हैं, इनमें से कुछ तो बहुत कम समय के लिए हैं। ऐसा ही एक अवतार है सुरेश्वर अवतार। ये अवतार भक्ति और आस्था की सच्ची अवस्था के बारे में बताता है। वास्तव में भक्ति करने का अर्थ सिर्फ पूजा या मंत्र जाप करने से नहीं है। सही भक्ति मन के भीतरी भावों से होती है। आप जिसकी भी भक्ति करते हों, उसके लिए आपके मन में क्या भाव हैं, ये बात ही आपकी भक्ति सी सच्चाई और गहराई को बताती है। शिव महापुराण के मुताबिक भगवान शिव ने एक बार देवराज इंद्र का रूप धरा था। इसे भगवान शिव का सुरेश्वर अवतार कहा गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। कथा के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पला था। वह हमेशा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था, गरीब होने के कारण उसके मामा या मां उसे रोज दूध देने में असमर्थ थे।

एक बार दूध मांगने पर उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु पास के वन में जाकर ऊं नम: शिवाय का जाप करने लगा। नन्हे बालक की तपस्या देख शिवजी तुरंत प्रसन्न हो गए। शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिए और अपने इंद्र रुप में शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगे। उसे शिवजी की भक्ति छोड़ इंद्र की भक्ति करने का उपदेश देने लगे। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र बने भगवान शिव को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु की भक्ति और अटल विश्वास देखक र शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन दिए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।

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