बिना कार्ड खबरनवीस को टीस

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तबियत खराब होने की वजह से मंगलवार को छुट्टी पर था। सोचा था आराम करुंगा, शायद ठीक हो जाऊंगा। लिहाजा खबरों और ग्रुप की दुनिया से दिन भर दूर रहा। देर शाम जब अच्छा महसूस किया तो सोचा खबरों में क्या कुछ खास है देखा जाए। लैपटाप लेकर बैठा और खबरों की दुनिया तक गया। नेशनल, इंटरनेशनल खबरों से गुजरता जब अपने क्षेत्र की खबरों के लिए डेस्क व बाकी साथी रिपोर्टरों से पूछा तो वहां पर भी कुछ खास नहीं था लेकिन जब ग्रुप पर गया तो पता चला कि मंगलवार 20 अगस्त की सबसे बड़ी खबर तो हमारे ग्रुप पर ही है और वो भी सुबह से। मैं ठहरा आलसी पत्रकार जो उसे देख नहीं पाया। खबर आई कार्ड को लेकर चल रही थी। चल नहीं बल्कि दौड़ रही थी। बहुत कुछ लिखा जा रहा था। साफ लग रहा था आई कार्ड का मसला तो कश्मीर तनाव से भी बड़ा है…नेताओं की तरह वादे करते रहने की तरफ इशारे नहीं बल्कि साफ -साफ यही लिखा जा रहा था कि ये तो संपादक की आदत है। एक साथी लिखता था और दूसरा उस पर लाला अमरनाथ की स्टाइल में स्पेशल कमेंट दे रहा था।

एक सज्जन को तो अगस्त 19 का महीना ही 2020 आ रहा था। अब पता चला खबरों में फैक्ट सही क्यों नहीं होते हैं? पढक़र सोचता रहा कि ये आई कार्ड इतना बेशकीमती है क्या? क्या पत्रकार की पहचान इससे ही है? क्या इसके बिना पत्रकारिता नहीं हो सकती? अगर नहीं हो सकती तो फिर आज तक मेरे जैसे इस फील्ड में बिना आई कार्ड के चल कैसे गए? आखिर कभी ये आई कार्ड मेरे जैसों को जरूरी क्यों नहीं लगा? लाख टके का सवाल यही है कि क्या खबरनवीस के लिए आई कार्ड होना नितांत आवश्यक है? इसके बिना कुछ नहीं? निसंदेह जिस दौर में इंसान की पहचान कार्ड पर ही टिकी हो, वहां पर कोई पहचान पत्र तो पास में होना ही चाहिए। जहां जिंदगी की नैया घर से एयरपोर्ट तक , राशन की दुक न से पोलिंग बूथ तक आई कार्ड से ही चलती हो तो वहां पत्रकारों के पास कार्ड क्यों नहीं होना चाहिए? होना ही चाहिए लेकिन अहम सवाल है कि किनके पास होना चाहिए? क्या उनके पास जो यदा-कदा कोई खबर भेजकर इतिश्री कर लेते हों?

क्या उनके पास जो आई कार्ड के लिए 10-20 कापी की एजेंसी लेकर पत्रकार का कथित ताज सिर पर रखकर समाज में इठलाकर, बल खाकर, आंखें तरेरकर खुदा व भगवान बनने की गवाहिश व मुगालता पाल लेते हैं? क्या उनके पास जो एक ही समय में 3-3 अखबारों के अखबारनवीस बनकर पूरे कस्बे या शहर में पत्रकारिता का ठेका लिए घूम रहे हैं? अगर इन्हें कार्ड दिए जाने चाहिए तो फिर इनमें और उनमें क्या अंतर रह जाता है जो दिन भर पत्रकारिता करते हैं, अपने घर व अखबार के लिए मेहनत करते हैं, पत्रकारिता करते हैं और समाज में अपना प्रभाव छोड़ते हैं। मैं 200 फीसद मानता हूं कि इनके पास आई कार्ड होने ही चाहिए थे, होने चाहिए। 2-4 हमारे साथ भी इस श्रेणी में हैं जिनके पास कार्ड होने चाहिए। इन्हें अब तक नहीं मिले खेद है, जल्दी ही मिलेंगे इसका पूरा विश्वास है। कड़वा सच यही है कि कुछेक अखबारनवीसों को छोड़ दें तो पत्रकारिता की ज्यादात र फोज ऐसी ही गई है जिसे जनसरोकार की पत्रकारिता की एबीसीजी तक नहीं आती। नेताओं व अफसरों के पीछे जी हुजूरी व सर- सर करने में ही दिन निकल जाता है।

थाने-कचहरी या दूसरे सरकारी दफ्तरों में सिफारिश के दो-चार काम। पत्रकारिता के लिए हो ना हो पर इसके लिए कार्ड जरूर होना चाहिए तभी तो रौब बैठता है। खासकर जनता पर। कोई शक नहीं कि पत्रकार बनना आसान है लेकिन पत्रकार कहलाना बेहद कठिन। मेहनत व मशक्कत करते बरसों गुजर जाते हैं। महज उस एक खबर के वास्ते, जो असली पत्रकार का तमगा दिलाती है। पर उस खबर की दरकार ही किसे रह गई है? अगर किसी शहर में किसी नेता, संस्था या कोई सरकारी कार्यक्रम ना हो, कोई अपराध की घटना ना हो तो यकीन मानिए इस फौज के पास उस दिन चार लाइन की खबर नहीं होगी। मुझे याद नहीं पड़ता कि हमारी ही तीन चौथाई महाज्ञानी पत्रकारों की कोई स्टोरी पेज एक के एंकर तक जा पाई हो? कार्ड जैसी पीड़ा क भी खबरों में नजर ह्वयों नहीं आती, ये यक्ष प्रश्न है? लेकि न खबरों की जगह अगर एजेंडा दूसरा हो जाए तो फिर कार्ड की हाय तौबा जरूरी हो जाती है। कार्ड होना चाहिए लेकिन पत्रकारिता की सांस कार्ड पर ही टिकी हैं ये कै से माना जा सक ता है? मेरा व्यक्तिगत मानना है कि कार्ड होने चाहिए पर उनके पास जो पत्रकारिता, संस्थान, समाज व अपने घर के हित में काम करते हों? जय हिन्द।

डीपीएस पंवार
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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