बिखरेगा लोकतांत्रिक भारत का विचार

0
164

अगर देश में कोई ऐसी जगह है, जो भारतीय लोकतंत्र के चरित्र का प्रतीक है, तो निस्संदेह यह नई दिल्ली के मध्य, इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन के बीच दो मील में फैली जगह है। संसद, मंत्रालयों और सरकारी ऑफिसों, राष्ट्रीय अभिलेखागार और संग्रहालय के बीच, यह एक तरफ सरकार की सत्ता और दूसरी तरफ त्याग का प्रतीक है। साथ ही यहां परिवारों को घूमते, आइस-क्रीम खाते, खेलते भी देखा जा सकता है। सरकार की जगह, लेकिन लोगों के बीच और उनकी आसान पहुंच में। जहां उनका अतीत और वर्तमान है और जहां वे भविष्य का सपना देख सकते हैं।

इस इलाके को अब सरकार द्वारा भव्य सेंट्रल विस्टा परियोजना के तहत, राष्ट्रीय खजाने में से 20,000 करोड़ खर्च कर दोबारा बनाया जा रहा है। नई इमारतों के लिए बैरियर लगा दिए गए हैं और दूसरी लहर के बीच भी इसका काम ‘जरूरी सेवा’ के नाम पर चलता रहा। यह राष्ट्रीय आपदा के संदर्भ में राष्ट्रीय प्राथमिकताओं का गलत आवंटन है।

इस भव्य ‘मोदीकरण’ के लिए 20 हजार करोड़ रुपए का बजट अपने-आप में शायद ज्यादा न लगे, लेकिन इसका आवंटन उस सरकार ने किया है, जो किसानों को एमएसपी देने की बजाय उनकी घेराबंदी कर रही है, जिसके पास दूसरी लहर से पहले पर्याप्त टीकों का ऑर्डर देने के लिए पैसे नहीं थे, जो नागरिकों के लिए ऑक्सीजन नहीं जुटा पाई थी, जो पिछले साल प्रवासी मजदूरों के परिवहन के लिए फंड नहीं दे पाई थी और जिसने आर्थिक संकट और बेरोजगारी झेल रहे देश में, किसी भी बड़ी अर्थव्यवस्था की तुलना में बेहद कम वित्तीय प्रोत्साहन दिया है।

विडंबना यह है कि नए संसद भवन का भूमिपूजन महामारी के दौरान तब किया गया, जब सारे काम स्थगित कर पुरानी संसद में काम होना चाहिए था। मैं उन सांसदों में था, जिन्होंने नई इमारत बनाने की जगह मौजूदा संसद भवन के नवीनीकरण की बात उठाई थी, जिसमें लोकसभा को पुराने सेंट्रल हॉल में ले जाना शामिल था। मेरा अब भी यही मत है। न ही मुझे 1960 के दशक में बने शास्त्री भवन जैसी साधारण इमारतों को गिराने पर आपत्ति है, न ही सांसदों के लिए नए ऑफिस बनाने पर। लेकिन जिस तरह से सिर्फ एकरूपता लाने के लिए पूरी तरह तोड़-फोड़ की योजना बनाई गई है, जिसमें राष्ट्रीय संग्रहालय और हाल ही में बना जवाहर भवन जैसे अच्छी हालत वाले भवन भी शामिल हैं, यह गैरजरूरी और फिजूलखर्ची है। कई मौजूदा इमारतों को पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना सुधारा जा सकता है।

लेकिन इन फिजूल फैसलों को लेने से पहले किससे सलाह ली गई थी? पर्यावरण और विरासत संबंधी कानूनों की अवहेलना करने और दिल्ली के मास्टर प्लान को नजरअंदाज कर जल्दी अनुमतियां पाने के लिए अधिकारियों ने न तो आर्किटेक्ट, पर्यावरणविदों या सांसदों के मत जाने, न ही सार्वजनिक सुनवाई की। कम पुरानी इमारतों, आर्काइव और संग्रहालयों के संरक्षण की बात को नजरअंदाज किया। दुनियाभर के विद्वानों ने चिंता जताई है कि संग्रहालयों में रखी प्राचीन कला संबंधी चीजों और नाजुक पांडुलिपियों को नई जगह ले जाने में नुकसान पहुंचने का खतरा है।

और लोगों का क्या? राजपथ लोगों के लिए खुली बड़ी जगह नहीं रह जाएगा क्योंकि इसके दोनों तरफ चेहराविहीन सरकारी इमारतें होंगी। यहां प्रधानमंत्री आवास की मौजूदगी से सुरक्षा की पेरशानी बढ़ेगी और आम जनता की पहुंच सीमित होगी। मोदी ‘लुटियन्स की दिल्ली’ को भ्रष्टाचार और अभिजात्यवाद का दूसरा नाम बताते रहे हैं, अब इसकी जगह मानकीकृत इमारतें सरकारवाद का प्रतीक बन जाएंगी। इससे राष्ट्र को महान शहरी विरासत नहीं मिलेगी। एक अंतरराष्ट्रीय आर्किटेक्चर पत्रिका ने इस परियोजना को ‘एक पश्चगामी और पारिस्थितिकी विरोधी शहरी योजना’ बताया है, जो ‘पूरे राजपथ को सिक्योरिटी जोन में बदल देगी।’

लुटियंस की दिल्ली का भौतिक रूप से चेहरा बदलना भाजपा सरकार का सत्ता का प्रदर्शन और मोदित्व की छाप छोड़ने की महत्वाकांक्षा है। सेंट्रल विस्टा परियोजना से लुटियंस की दशकों पहले हुई शाही विरासत ही नहीं ढहेगी, बल्कि इससे लोकतांत्रिक भारत का विचार ही बिखर जाएगा।

शशि थरूर
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here