बर्बादी की मार्मिक कहानिया

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कोरोना महामारी और लॉकडाउन की जो मार पड़ी है, उससे आम लोगों के लिए लंबे समय तक उबर पाना संभव नहीं होगा। समाचार एजेंसी रॉयटर्स की एक रिपोर्ट उन मार्मिक कहानियों से भरी है, जो तबाह जिंदगियों की गवाही देती हैं। दरअसल, भारत की कोरोना वायरस तालाबंदी ने मध्यम वर्ग में शामिल होने की कोशिश में लगे लाखों लोगों की योजनाओं को उलट-पलट कर रख दिया है। ये समूह भारत में आर्थिक विकास की योजनाओं का एक मुख्य हिस्सा रहा है। ये लोग सालों से ग्रामीण भारत के लिए समृद्धि हासिल करते रहे हैं। ये एक ऐसे वर्ग में शामिल हैं, जिसे अर्थशास्त्री एक निरंतर फैलता हुआ मध्यम वर्ग कहते हैं। कुछ परिभाषाओं के अनुसार ये प्रतिदिन 500 से 1000 रुपये तक ज्यादा कमाते रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार महामारी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था के 4.5 प्रतिशत सिकुड़ने का अनुमान है, हालांकि भारतीय स्टेट बैंक ने यह आंकड़ा माइनस 15 फीसदी तक चले जाने का अंदेशा जताया है। अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार इसके परिणामस्वरूप कम से कम 40 करोड़ श्रमिकों के और गहरी गरीबी में जाने का खतरा है।

हजारों लोग महामारी के दौरान पूरे देश से अपने जिले वापस लौट कर गए हैं। अनुमान के मुताबिक पूरे देश में करीब एक करोड़ लोग लंबी और मुश्किल यात्राएं करके अपने उन गांवों में वापस लौट आए, जिन्हें छोड़ कर वे कमाने के लिए शहर और दूसरे राज्यों में चले गए थे। उन लोगों में से कुछ तो फिर से वापस शहर लौट चुके हैं, लेकिन कई अभी भी गांवों में ही रहने को मजबूर हैं। रॉयटर्स की रिपोर्ट एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो महाराष्ट्र के बारामती जिले में एक फैक्टरी में काम करता था और हर महीन 13,000 रुपये कमा रहा था। ये रकम गांव में उसके परिवार का सहारा थी। अपने कमाई में से वो हर महीने लगभग 9,000 रुपये अपने घर भेज रहा था, जिसका अधिकांश हिस्सा उनके छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च उठाने में काम आ रहा था। अब उसके परिवार की ये सारी अर्थव्यवस्था ठहर गई है। यह दरअसल, लाखों लोगों की कहानी है। मई में राज्य सरकारों ने तालाबंदी के बाद खुलने वाली फैक्टरियों के लिए स्वास्थ्य और सुरक्षा संबंधी दिशा-निर्देश जारी किए थे, जिनमें मास्क, तापमान मापना, दूरी बनाए रखना इत्यादि शामिल थे।

श्रम संगठनों का आरोप है कि कई कंपनियों ने सभी कदमों का पालन नहीं किया है। रिपोर्ट के मुताबिक महामारी के दौरान 16 मार्च और 31 जुलाई 2020 के बीच देश में बलपूर्वक घर खाली कराने की घटनाएं दर्ज की गईं। संगठन का अनुमान है कि असलियत शायद इससे भी अधिक गंभीर होगी, योंकि देशभर के सभी आंकड़े उपलब्ध नहीं है। अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक आवास अधिकार एक मानव अधिकार है। भारत के सुप्रीम कोर्ट और कई हाईकोर्ट ने भी यह माना है और दोहराया है, लेकिन फिर भी कानून का उल्लंघन करते हुए, सरकार लोगों का घर जबरदस्ती तोड़ती है और उन्हें बेदखल करती है। असल में बेदखल करने वालों पर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती और ना ही जबरन बेदखली करने वालों को कोई सजा होती है।

बेशक कोरोना महामारी के समय जब सभी को घर में रहने के लिए कहा गया, ऐसे समय में लोगों का घर तोडऩा और उन्हें बेघर करना बहुत ही क्रूर और दुख की बात है। महामारी के कारण देशभर में गंभीर आर्थिक संकट है और मजदूर खासकर बहुत मुश्किल झेल रहे हैं। इनमें से आवासहीन लोगों के लिए खास समस्याएं हैं। ऐसे में सरकार को पर्याप्त आवास सभी को देना चाहिए, तोडफ़ोड़ बंद करना चाहिए और रोजगार गारंटी कानून को शहरी और ग्रामीण इलाकों में लागू करना चाहिए। शहर और गांव में लोगों के आवास और भूमि अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। घर से बेदखली सीधे तौर पर बेघर, भूमिहीनता, विस्थापन, गरीबी और आय में असमानता को बढ़ावा देती है। मगर आज इसकी चिंता किसे है?

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