फिर सोनिया गांधी

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राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफे के बाद ढाई महीने तक नए अध्यक्ष की तलाश आखिरकार शिनवार देर रात पूरी हो गई। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया गया। पार्टी के सभी सदस्यों ने एक स्तर से पहले तो राहुल गांधी को ही आखिरी बार मनाने की कोशिश की। लेकिन उनके अपने पहले के रूख पर कायम रहने के बाद सोनिया गांधी से पार्टी की कमान संभालने को कहा गया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस तरह अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के रूप में पार्टी को मिल तो गया पर कई सवाल छोड़ भी गया। यह और बात कि पार्टी के नेता खुले तौर पर इस यथार्थ को स्वीकार भले ना क रें। लेकिन वास्तविकता यही है कि गांधी परिवार ही उन्हें अपने वजूद और उम्मीदों का केन्द्र प्रतीत होता है।

ठीक है यह पार्टी का अपना मामला है लेकिन जिस जद्दोजहद के बाद अंतरिम अध्यक्ष चुना गया, उससे एक संदेश साफ है कि पार्टी के भीतर या तो नये नेतृत्व का अभाव है अथवा इतनी गुटबाजी है कि उसे थामने का माद्दा सिर्फ गांधी परिवार में है। यह स्थिति किसी भी पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के लिए भी ठीक नहीं है। इससे भविष्य के नेतृत्व पर एक तरह से विराम लग जाता है। पार्टी की उवर्रता के लिए भी आवश्यक होता है कि युवाओं को अवसर मिले। देश के भीतर ही खासतौर पर चुनौती के रूप में खड़ी भाजपा में नेतृत्व की नई पीढ़ी तैयार होती दिख रही है और उसका फायदा भी पार्टी को मिलता दिख रहा है। ठीक इसके उलट कांग्रेस नए चेहरों पर दांव आजमाने से पीछे हट रही है।

मोटे तौर पर जितिन प्रसाद, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और मिलिंद देवड़ा जैसे युवा चेहरों पर भरोसा करके एक मौका प्रयोग के तौर पर दिया जा सकता था। अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस के लिए यह अवसर फायदेमंद साबित हो सकता था। ऐसे कठिन समय में गुटबाजी को किनारे भी किया जा सकता था। इस वक्त तो ऐसे प्रयोग की पार्टी को बड़ी जरूरत थी। लोकसभा चुनाव में हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से त्याग पत्र इसलिए भी दिया था कि विपक्षी पार्टियां उनको लेकर वंशवादी राजनीति का आरोप लगाती रही हैं। यही वजह है कि उन्होंने नये अध्यक्ष के लिए एक बड़ी शर्त यह रखी थी कि गांधी परिवार से किसी को कमान ना सौंपी जाए। पर जो शनिवार को हुआ वह तो ठीक राहुल की मंशा के विपरीत हुआ।

बैठक में प्रियंका गांधी मौजूद थीं, उन पर भले ही विचार नहीं हुआ लेकिन 17 वर्षों तक अध्यक्ष रहकर सन्यास की तरफ बढऩे वाली सोनिया गांधी को अंतरिम कमान सौंप दी गई। पार्टीजनों को उम्मीद है कि 1998 में सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान संभालने के बाद 2004 से लेकर 2013 तक केन्द्रीय सत्ता का सिरमौर भी बनाया। हालांकि 2014 में उनका करिश्मा नहीं काम आया। पर पार्टी के लोगों को उम्मीद है कि सोनिया गांधी ही मौजूदा स्थिति से संगठन को उबार सकती हैं। इस घटनाक्रम से स्पष्ट है कि गांधी परिवार के बगैर पार्टी अपने भविष्य के लिए नया तसव्वुर भी नहीं कर सकती । फिलहाल तो नेतृत्व संकट थम गया है, आने वाले दिनों में इसके असर पर सबकी नजर रहेगी।

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