फांसी के नाम पर मजाक

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दुनिया भर के सभ्य देशों में फांसी की सजा खत्म करने पर बहस चल रही है। अनेक देशों ने अपने यहां फांसी की सजा नहीं रखी है। इसके बावजूद उनके यहां कानूनव्यवस्था की स्थिति भारत ऐसे दूसरे देशों, जहां फांसी की सजा है, वहां से बेहतर है। फांसी की सजा पाए करीब दो दर्जन लोगों के साथ बातचीत के आधार पर हाल ही में एक महिला शोधकर्ता का एक शोध प्रकाशित हुआ है, जिसमें बताया गया है कि फांसी की सजा होने से बलात्कारी की सोच पर कोई खास असर नहीं होता है। यानी मौत की सजा का प्रावधान होना इस बात की गारंटी नहीं है कि अपराध रूक जाएगा। मौत की सजा का मतलब है किसी का जीवन लेना। हमेशा यह तर्क दिया जाता है कि जब आदमी जीवन दे नहीं सकता है तो उसे जीवन लेने का अधिकार नहीं हो सकता है। सो, यह एक बड़ी बहस का विषय है कि मौत की सजा जब अपराध रोकने में कारगर नहीं है तो यह सजा होनी चाहिए या नहीं? इस बहस का लब्बोलुआब यह है कि अपराध न्याय प्रणाली में मौत की सजा एक गंभीर विषय है और इसे गंभीरता से ही लिया जाना चाहिए।

पर दिल्ली में निर्भया कांड के चार दोषियों को फांसी की सजा देने या ऐसे ही कुछ दूसरे मामलों में फांसी की सजा को लेकर जैसा प्रहसन चल रहा है वह इस पूरे मामले की गंभीरता को खत्म करता है और अपराध न्याय प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करता है। दिल्ली में दिसंबर 2012 की एक रात को छह लोगों ने एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया था और उसे बुरी तरह से जख्मी हालत में सड़क पर छोड़ कर भाग गए थे। बाद में युवती ने सिंगापुर के अस्पताल में दम तोड़ दिया। इस घटना ने देश की सामूहिक चेतना को जिस तरह आंदोलित किया था, हाल के इतिहास में उसकी मिसाल नहीं है। देश के सामूहिक गुस्से और दुख का जबरदस्त सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ था। तभी सुप्रीम कोर्ट की पहल पर इसकी सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक अदालत बनी और आनन-फानन में मामले की सुनवाई करके निचली अदालत ने सभी दोषियों को फांस की सजा दे दी। इस मामले के एक दोषी ने अदालत में कथित तौर पर खुदकुशी कर ली थी और एक दोषी नाबालिग था तो उसे बाल सुधार गृह में रखने के बाद रिहा कर दिया गया।

बचे हुए चार दोषियों को निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक से फांसी की सजा हो चुकी है। पर पिछले तीन साल से किसी न किसी बहाने से इसे लेकर प्रहसन चल रहा है। इसे कानून का मजाक बनना भी कह सकते हैं पर वास्तव में यह कानून की कमियों का फायदा उठाना है। कानून में ऐसे लूपहोल हैं, जिनका फायदा उठा कर दोषी बचते रहे हैं। फांसी की सजा पाए दोषी के पास भी ढेर सारे कानूनी विकल्प होते हैं और ऐसा भी है कि उसे सारे कानूनी विकल्प जल्दी से जल्दी आजमा लेने के लिए बाध्य भी नहीं किया जा सकता है। कानून में यह भी प्रावधान है कि अगर एक ही अपराध में दोषी एक से ज्यादा हैं तो सबकी सजा पर अमल एक ही साथ होगा। सो, निर्भया के दोषी इसका फायदा उठा रहे हैं। वे आराम से अपने कानूनी विकल्प इस्तेमाल कर रहे हैं। यह भी कम हैरान करने वाली बात नहीं है कि एक ही कानूनी विकल्प वे लोग दो दो बार आजमा रहे हैं। एक दोषी ने अपनी दया याचिका दो बार राष्ट्रपति को भेजी।

उसके वकील ने कहा कि पहली याचिका जो खारिज हुई वह अधूरी थी। सोचें, एक बार दया याचिका भेजी और वह खारिज हो गई तो कह दिया कि वह अधूरी थी, अब दूसरी भेजेंगे! कोई पूछे कि जब दोषियों के सारे कानूनी विकल्प खत्म नहीं हुए हैं और हर विकल्प आजमाने के बाद फांसी देने की एक समय सीमा है तो अदालत क्यों बार बार डेथ वारंट जारी कर रही है? दिल्ली की एक अदालत से दो बार जारी डेथ वारंट रद्द हो चुका है और अब तीसरी बार डेथ वारंट के लिए तिहाड़ जेल प्रशासन को अदालत जाना है। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ दिल्ली की अदालत में हुआ है। गुजरात की एक अदालत ने पिछले दिनों दोषी की याचिका पर उच्च अदालत में फैसला होने से पहले ही डेथ वारंट जारी कर दिया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया। इस तरह की घटनाओं का कुल लबोलुआब यह है कि सरकार और न्यायपालिका दोनों को गंभीरता से अपराध न्याय प्रणाली के बारे में विचार करना होगा।

अजित कुमार
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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