व्यवस्था के हर अंग में शुचिता के लिए जरूरी हो, इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने निश्चित तौर पर बुधवार को बड़ा ऐतिहासिक फैसला दिया है। इसके मुताबिक प्रधान न्यायाधीश का दफ्तर भी अब आरटीआई के दायरे में होगा। यह अच्छी पहल है, आखिरकार प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय भी तो सार्वजनिक प्राधिकरण है। लेकिन इसके साथ यह तामीर भी की गई है कि इस सुविधा का निगरानी के हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं होगा। मसलन कौलेजियम द्वारा तय किये नामों को तो बताया जाएगा लेकिन उसके पीछे की वजह नहीं बताई जाएगी। फैसले से यह स्पष्ट तौर पर ध्वनित है कि पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता। संपत्ति के खुलासे की जवाबदेही जजों पर होगी, लेकिन आरटीआई के तहत मांगी गई सूचना के पीछे की प्रवृत्ति को भी देखना पड़ेगा कि वो जनहित में है या नहीं। दरअसल, आरटीआई के नाम पर कई बार अनुभव में यह भी आया है कि कुछ लोगों का अपना निहित स्वार्थ होता है और ऐसे लोग इसकी ओट में संबंधित व्यक्ति या प्रतिष्ठान-संस्थान की छवि कलंकित करने का काम करते हैं। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण भी है कि इस महत्वपूर्ण अधिकार का दुरुपयोग भी हुआ है। इसीलिए इस फैसले में चेक एंड बैलेंस का भी ध्यान रखा गया है।
जस्टिस खन्ना की टिप्पणी खास है कि निजता का अधिकार महत्वपूर्ण पहलू है और सीजेआई कार्यक्रम से जानकारी देने के बारे में निर्णय लेते समय पारदर्शिता के बीच संतुलन कायम करना होगा। उनकी बात ध्यान देने योग्य है कि न्यायिक स्वतंत्रता और पारदर्शिता को साथ-साथ चलना है। हालांकि जस्टिस चंद्रचूड़ यह भी मानते हैं कि जजों की संपत्ति की जानकारी निजी नहीं है। उन्हें आरटीआई से छूट नहीं दी जा सकती। न्यायपालिका पूरी तरह अलग होगर काम नहीं कर सकती क्योंकि जज संवैधानिक पद पर आसीन होता है। तो कुल मिलाकर इस फैसले की खूबी यह है कि इससे न्यायपालिका के क्षेत्र में भी पारदर्शिता की मांग बढ़ेगी और इससे एक तरह से आत्मनियमन भी पैदा होगा। यह फैसला इसलिए भी पारदर्शिता के लिहाज से महत्वपूर्ण है कि जब दिल्ली हाईकोर्ट ने 2010 में केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश को बरकरार रखा था जिसमें स्पष्ट था कि सीजेआई का दफ्तर भी आरटीआई के दायरे में आता था, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार ऑफिस की तरफ से इसे ना मानने की बात सामने आई थी।
इस समय के सीजेआई भी यही चाहते थे। पर जाते-जाते वर्तमान सीजेआई रंजन गोगोई ने इस मामले में सुनवाई करने का साहस दिखाया और आखिरकार लैंडमार्क फैसला दे दिया। इस फैसले की एक खूबी यह भी है कि इस बेंच में तीन न्यायमूर्ति ऐसे शामिल हैं जो भविष्य के प्रधान न्यायाधीश बनेंगे। तो स्पष्ट है कि न्याय के सबसे बड़े मंदिर में आरटीआई की धमक बढऩे का रास्ता साफ हुआ है और आने वाले वर्षों में और भी मजबूत होगा। इसको लेकर जो चुनौतियां होंगी वो तब की तब देखी जाएंगी। इस फैसले से खासतौर पर विधायिका और कार्यपालिका में पारदर्शिता की मांग बढ़ेगी। अब राजनीतिक दलों के लिए भी यह विचार करने का वक्त है कि वो अपने चंदे का पूरा हिसाब कब देना शुरू करेंगे, वे कब आरटीआई के दायरे में आएंगे। खासतौर पर चंदे को लेकर सारी राजनीतिक पार्टियां एक ही राग अलापती हैं। हम पूरा हिसाब-किताब चुनाव आयोग को देते है, इसके बाद किसी और को जानकारी देने का सवाल ही नहीं। इस प्रवृत्ति से प्राय: धन के आगमन का स्रोत क्या हैए इसका पता नहीं चल पाता। इससे ऐसे पैसों के लिए भी राह बन जाती है जो गलत तरीके से अर्जित होती है। पारदर्शिता के नाम पर इलेक्टोरल बांड जारी किए गए।