पाकिस्तान से युद्ध कोई समाधान नहीं है!

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युद्ध अगर समाधान होता तो छठे-सातवें दशक में वियतमान से लेकर मौजूदा समय के अफगानिस्तान और इराक से अमेरिका यूं ही खाली हाथ नहीं लौट जाता। युद्ध समाधान नहीं, बल्कि अपने आप में एक समस्या है, जिसे तकनीक और आधुनिक हथियारों ने और घातक बना दिया है।

सदियों से अनुभ से यह प्रमाणित है कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। युद्ध अगर समस्या का समाधान होता तो चार युद्ध के बाद पाकिस्तान कोई समस्या नहीं रह गया होता तो छठे-सातवें दशक में वियतमान से लेकर मौजूदा समय के अफगानिस्तान और इराक से अमेरिका यूं ही खाली हाथ नहीं लौट जाता। युद्ध समाधान नहीं, बल्कि अपने आप में एक समस्या है, जिसे तकनीक और आधुनिक हथियारों ने और घातक बना दिया है। इसलिए जम्मू कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के बाद युद्ध की सलाह देने वाले को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।

गंभीरता से सोचने का पहला बिन्दु यह है कि अगर परमाणु शक्ति संपन्न पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ तो वह कैसा होगा? वह अब तक हुए पारंपरिक युद्ध से अलग होगा। जिस पैमाने पर तबाही होगी, उनकी कल्पना नहीं की जा सकती है। ऐसे में यह जायज सवाल उठता है कि तो क्या तबाही के डर से भारत आतंकवाद की मार झेलते रहे और एक दुष्ट पड़ोसी की सनक का शिकार होता रहे? क्या भारत को अपने 40 से अधिक जवानों की शहादत का सम्मान करते हुए पुलवामा के आतंकवादी हमले का जवाब नहीं देना चाहिए? अगर युद्ध समाधान नहीं है तो आतंकवाद से निपटने और जड़ से खत्म करने के लिए भारत के पास क्या विकल्प हैं?

करगिल की लड़ाई के बाद भारत लगभग चुपचार पिछले दो दशक से आतंकवादी हमले झेल रहा है। पाकिस्तान की सरजर्मी पर सक्रिय आतंकवादी संगठन इन दो दशकों में भारत को दर्जनों घाव दे चुके हैं। पर पाकिस्तान को सबक सिखाने के बजाय भारत अपने घाव सहलाता रहा है। 2001 में संसद पर हुए हमले के साथ-साथ इस सिलसिले में मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले, उरी और पठानकोट के हमले और पुलवामा की घटना को याद किया जा सकता है। जवाब देगा, शहीदों के खून के हर कतरे का बदला लेगा, शहीदों के परिजनों के हर आंसू का हिसाब लेगा पर अफसोस की बात है कि कोई जवाब नहीं दिया जाता, कोई बदला नहीं लिया जाता और न कोई हिसाब लिया जाता है।

अगर भारत सचमुच कार्रवाई करता है तो शायद हालात ऐसे नहीं होते। उरी की घटना के बाद एक सर्जिकल स्ट्राइक हुई थी पर उससे क्या हासिल हुआ यह हाल में बनी एक फिल्म देख कर ही पता चलता है। वास्तिवक हासिल का किसी को अंदाजा नहीं है। सो, एसी किसी कार्रवाही की बजाय निर्णायक कार्रवाई की जरूरत है। भारत को ऐसे हर हमले के बाद इजराइल से सीखने की सलाह दी जाती है। इजराइल के साथ-साथ भारत को अमेरिका से भी सीखना चाहिए। हमारे सैनिकों का खून न बहे और आतंकवादी घटनाओं में बेकसूर लोग न मारे जाएं इसके दो उपाय संभव है।

अमेरिका ने दोनों आजमाए है। 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका पर हुए हमले के बाद उसने हपले तो सच्ची झूठी खबरों के आधार पर इराक पर हमला किया और सद्दाम हुसैन को खोज कर फांसी की सजा दी। फिर अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को मारा। इसके साथ-साथ अमेरिका ने अपने यहां सुरक्षा की ऐसी पुख्ता व्यवस्था कर डाली कि दुनिया भर के सारे जिहादी उसे अपना दुश्मन नंबर एक मानने के बावजूद उस पर दूसरा हमला नहीं कर सके। उलटे उसने हिन्दूकुश की पहाडियों में छिपे आतंकवादियों की खोज-खोज कर मारा। सो भारत को भी यह दोहरा सबक लेने की जरूरत है। उसे आतंकवादियों को प्रश्रय देने वालों पर कार्रवाई भी करनी होगी और साथ ही अपनी सीमाओं और देश के अंदर सुरक्षा व्यवस्था ऐसी करनी होगी, जिससे कोई बाहरी ताकत हमला नहीं कर सके।

अजित द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं औ ये उनके निजी विचार है)

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