नींद में चलते हुए जगा होना!

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महामारीः सरकार क्या कर सकती है?-5 : लब्बोलुआब क्या? हिंदू जीता है नियति और भाग्य से। उसकी बतौर अनुभव पूंजी है हजार साला गुलामी। दोनों के एक और एक ग्यारह से दिमाग में अचैतन्यता है। बुद्धि का हरण है। तभी वह वैश्विक पैमाने की कसौटियों में न जागा हुआ है और न उड़ता हुआ। वह चिंताओं में जी रहा होता है। समरथ के आगे सहमा, डरा, ठिठका हुआ होता है। वह स्वतंत्र बुद्धि बल के पंखों में उड़ता हुआ नहीं है। पंख अलग-अलग बोझ से बंधे हुए हैं। तभी मैं सोचता हूं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब विश्व नेताओं के सामूहिक भोज में बैठते होंगे तो क्या वे अपने को बेगानी शादी में अब्दुला दीवाना नहीं फील करते? छह सालों में उनका चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग के साथ क्या व्यवहार रहा होगा? उन्होंने ओबामा, डोनाल्ड ट्रंप को कितना पटाया? रूस, फ्रांस, जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की कैसे मिन्नत की? वे इन दिनों चीन की बला टालने के लिए किससे, क्या-क्या मिन्नत कर रहे होंगे?

जैसे वे कर रहे हैं वैसा जीने के लिए औसत हिंदू आम तौर पर करता है। यहीं हम हिंदुओं का जीवन व्यवहार है। ताकतवर के आगे हमारा वह सहज-आत्मविश्वासी व्यवहार बन ही नहीं सकता जो स्वतंत्रतचेता कौम में स्वतंत्र-मौलिक बुद्धि से खिला हुआ होता है। पिछले 73 वर्षों में भारत के प्रधानमंत्रियों का विश्व कूटनीति में औसत व्यवहार मिन्नत करने का, पटाने का, लफ्फाजी का रहा है। नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी सभी ने कूटनीति से भारत का हित नहीं सधवाया, बल्कि जो भी किया वह इस सोच में किया कि देखो भारत के लोगों, उनका वाशिंगटन, लंदन, पेरिस में कैसा स्वागत हो रहा है!

भला क्यों? जवाब है कि जैसे एक औसत हिंदू एमएलए, एमपी, कलेक्टर, एसपी, थानेदार या प्रधान-सरपंच मुख्यमंत्री, मंत्री, प्रधानमंत्री याकि समरथ हाकिम के साथ फोटो खींचा कर अपना जलवा दर्शाता है तो उसी मानसिकता में भारत के नेता, प्रधानमंत्री वैश्विक जमात में फोटो से, गले लग कर अपनी जनता को दिखलाते है कि देखो उनकी कैसी धाक है। नरेंद्र मोदी ने शपथ समारोह में नवाज शरीफ को इसलिए बुलाया ताकि भारत के लोगों में जादू-चमत्कार बने। यह विचार-मंथन, आगा-पीछा नहीं सोचा कि दुश्मन को, चीन और पाकिस्तान के नेताओं को बुलाने, उन्हें झुला झूलाने से क्या बनेगा। इसलिए क्योंकि हिंदू मनोविश्व, उसके माथे में इतना सोचने की गुजांइश कहां है? नेहरू का लियाकत समझौता हो या वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा या नवाज शरीफ और शी जिनफिंग के साथ नरेंद्र मोदी की पकौड़ा कूटनीति, हर स्थिति का सार तत्व बुद्धि हरण है।

सही में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री बनने से भी औसत हिंदू दिमाग हजार साला गुलाम काल की छाया-प्रतिछाया, संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाता है। बंधुआ कितना ही आजाद करार दिया जाए उसकी बुद्धि, उसका व्यवहार वैसे ही चलेगा जैसा ढला हुआ है।

इतिहास की विरासत, बुद्धि की इस बुनावट के कई दुष्परिणाम हैं। नंबर एक सर्वोपरि मसला कौम, धर्म और जनता का नींद में सोते रहने का है। 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ लेकिन उसका नागरिक नींद में चलता हुआ है। आजादी के बावजूद बंधुआ तासीर में जीता हुआ है। वह उसी मनोविश्व में है जो अंग्रेजों, मुगलों के वक्त था। मतलब हाकिम, मालिक, कोतवाल, अफसर, दरबार के रहमोकरम, उसकी मनसबदारी करते हुए। सत्ता लार्ड माउंटबेटन की हो या पंडित नेहरू की या नरेंद्र मोदी की सबके आगे सिर झुका कर नजराना, शुक्रराना, हरजाना हिंदुओं की नियति थी, है और रहेगी।

अपने एक स्वामी विवेकानंद थे। उनका नंबर एक आह्वान था हिंदुओं उठो, जागो, आगे बढ़ो! ऐसे ही महर्षि अरविंद ने भी हिंदुओं जागो का अलख जीवन पर्यंत बनाए रखा। लेकिन कितने हिंदुओं ने उसे सुना, माना? विवेकानंद, अरविंद जैसे गिने-चुने मनीषी हैं, जिन्होंने हिंदू की कोर, गुलामी की समस्या में ‘हिंदुओं जागो’ का उद्घोष बनाया। जागना मतलब बुद्धि की चैतन्यता, निर्भयता और उड़ने की निडरता। आजादी की लड़ाई के वक्त में अंग्रेजों की संगत, उनके संसर्ग में, ब्रिटेन में पढ़े भारतीयों की बदौलत भारत में जो राजनीतिक चेतना, विचारों की जो अलग-अलग धाराएं बनी थीं, उसमें लाल-बाल-पाल तक हिंदुओं को नींद से बाहर निकालने के प्रयास सचमुच कुछ थे। लेकिन गांधी ने हिंदू तासीर अनुसार अपने को महात्मा बना हिंदुओं को आचार-विचार, रामराज्य के जो पाठ पढ़ाए और कांग्रेस को सत्तानोमुखी, नेहरूमुखी जैसे बनाया तो वह हकीकत में खामोख्याली, गुलाम मनोविश्व में जनमानस को बांधे रखने की प्रयोगधर्मिता थी।

वह मध्यकाल के भक्ति मार्ग याकि हिंदू को नियति, निर्गुणता, भाग्य, सोने की चिड़िया, रामराज्य की लोरियों से सुलवाए रखना था, जिसमें अपने और नेहरू के प्रति भक्तिभाव का प्रायोजन कुल मिलाकर आजादी बाद नए काले अंग्रेजों की व्यवस्था की बंधुआगिरी के लिए जमीन बनाना था।

कोई माने या न माने अपना मानना है आजादी से पूर्व और आजादी के बाद का वह वक्त हिंदू के साथ छल, उसे बहलाने, बहकाने का था तो बुद्धि को कुंद-मंद बनवाने का भी था। स्वामी विवेकानंद, लाल-बाल-पाल, महर्षि अरविंद, सुभाष चंद्र बोस, क्रांतिकारी चेहरों, वीर सावरकर की तमाम धाराओं को गांधी-नेहरू ने अपने आभामंडल में जैसे समेटा और विचार भिन्नता, वैचारिकता, बौद्धिक आजादी, सौ फूल खिलने की लोकतांत्रिक जरूरत को जैसे हाशिए में डाला गया तो वह कुछ जाने-अनजाने था तो कुछ हिंदू मानस की मूर्ति पूजा की इस तासीर से भी हुआ कि नेहरू अवतार हैं और सबको एकजुट हो कर भारत बनाना है। देश विभाजन, मुस्लिम जिद्द-हिंसा से हिंदू दिमाग में या तो कांग्रेस-नेहरू के आगे समर्पण था या आरएसएस नाम की संस्था ने हिंदू को लाठी पकड़ा संगठित करने का काम इस एप्रोच में प्रारंभ किया कि बुद्धि वहीं जो उसके प्रचारक के बौद्धिक (याकि भाषण) से निकली हुई हो।

तभी पंडित नेहरू से ले कर नरेंद्र मोदी तक औसत हिंदू, उसकी बुद्धि का विन्यास यदि वायरस के आगे भी ताली, थाली बजाने का है तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। बुद्धि से कोई जागा हुआ नहीं है। सब नींद में चल रहे हैं। नेता के दिखलाए सपनों की नींद में या जुमलों की जुगाली के भाषणों में। विवेकानंद और महर्षि अरविंद के हिंदुओं जागो, उठो और उड़ो के फलसफे को यदि आज के हिंदू, 138 करोड़ लोगों के दिमाग में जांचे तो सब इस अचेतन में मिलेंगे कि करें तो क्या करें! दैवीय घटना है हम क्या कर सकते हैं? जैसे रामजी चाहेंगे वैसे रह लेंगे। तो क्या यह लावारिस वाली दशा नहीं?

विदेशी राज में भी जैसे रामजी रख रहे हैं वैसे रह रहे हैं तो स्वराज में भी जैसे रामजी रखेंगे वैसे रह लेंगे की मनोवृत्ति में जी रहे हैं तो बुद्धि का क्या रोल? एक मायने में कितना आसान है हिंदू का जीना और राजा का, राजा बने रहना। तभी पंडित नेहरू के वक्त कैबिनेट की बैठकें मास्टरजी की क्लास थी तो नरेंद्र मोदी के वक्त भी मास्टरजी की क्लास है। न तब विचार होता था और न अब विचार होता है। एक व्यक्ति का तब 30 करोड़ लोगों पर सर्वाधिकार था और अब एक व्यक्ति का 138 करोड़ लोगों पर सर्वाधिकार है। तब अकेले नेहरू सर्वज्ञ थे अब अकेले नरेंद्र मोदी सर्वज्ञ हैं। तब नेहरू के खिलाफ कांग्रेस में कोई बोल नहीं सकता था अब मोदी के खिलाफ भाजपा में कोई बोल नहीं सकता है। तब आईसीएस अफसर साउथ ब्लॉक में नेहरू के कहे पर गर्दन हिला, मुंह से वाह निकाल उनकी इच्छा पर तामील कराते थे और अब उसी दफ्तर में आईएएस मोदीजी के आगे गर्दन हिला कर दिन को रात और रात को दिन बतलाने वाली फाइलें चलाते हैं। सुप्रीम कोर्ट, भारत की संस्थाएं, मीडिया तब नेहरू के आइडिया ऑफ इंडिया में राष्ट्रीयकरण, समाजवाद पर ठप्पा लगाते थे और अब ये नरेंद्र मोदी के आइडिया ऑफ इंडिया के तामिलकर्ता है। मतलब सबकी खोपड़ियां सदा-सवर्दा सत्ता को समर्पित।

अंत नतीजा? बिना बुद्धि का राज और भाग्यवादी-अंधविश्वासी-पराश्रित-भयाकुल कौम। कौम का हर शासन बहाने, बहलाने, बहकाने के लिए है। तभी दुनिया के आगे प्रमाणित होता जा रहा है कि हिंदुओं को राज करना नहीं आता। सोचें, भारत से चीन कहीं ज्यादा आबादी लिए हुए है। 1947 में वह भारत से ज्यादा कंगला, बरबाद और अफीमची था। मगर उस देश, उस कौम ने कभी यह बहाना नहीं बनाया कि इतनी आबादी है तो कैसे हम विकसित हो सकते हैं? 1947 में जर्मनी, जापान ध्वंस से मिट्टी में मिले हुए थे लेकिन यहां के लोगों ने कभी यह रोना नहीं रोया की नियति, भाग्य के मारे हुए हैं, राहु की नीच दशा है तो कैसे अच्छा समय आ सकता है? 1947 में यहूदियों को रेत के टीले का देश मिला लेकिन उन्होंने कभी यह रोना नहीं रोया कि रेत से क्या बन सकता है या मुसलमानों ने सब बरबाद किया हुआ है, हम हजार सालों से भटक रहे हैं तो इतनी जल्दी कैसे अपना घर, अपना देश बना सकते हैं?

सोचे, इन सबकी बुद्धि, उनकी चैतन्यता, उनकी आजादी, उड़ने के पंखों में खोपड़ी की इनकी कुलबुलाहट, साहस, निडरता-निर्भयता के संकल्प ने इन देशों को क्या बनाया और हम हिंदुओं की बुद्धि की बुनावट, विन्यास में हम क्या हुए पड़े हैं?तभी सोचें और बहुत सोचें कि कैसे हैं हम? क्या हकीकत हिंदू दिमाग में सोचने-विचारने की खदबदाहट बनवाती है? मैं यह जो वास्तविकता लिख रहा हूं क्या वह हिंदू ब्रेन में रजिस्टर्ड होती है? क्या हिंदू दिमाग का तंत्रिका संजाल गुलामी, भक्ति, समर्पण के वैरियबल में पूरे ब्रेन को अचेतन नहीं बनाए हुए है? यदि चेतना होती तो क्या यह सवाल बनता कि सरकार क्या कर सकती है? या हम क्या कर सकते हैं? क्या है ऐसा महाशक्ति होना, जिसके पास एटमी हथियारों का जखीरा है लेकिन बावजूद इसके राजा में यह गुस्सा नहीं कि चीन की ऐसी तैसी कैसे वह भारत में घुसा है! कैसे ऐसा जो 138 करोड़ लोगों की विशाल भीड की विशाल आर्थिकी और बावजूद इसके सौ करोड़ लोग महामारी के वक्त में महीने में पांच किलो गेहूं, एक किलो चने से पेट भरते हुए! (जारी)

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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