नाटो सैन्य संगठन का बने रहना बेमतलब हो गया

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यों तो शीतयुद्ध के खत्म होते ही नाटो सैन्य संगठन का बने रहना बेमतलब हो गया था लेकिन अब भी यूरोप में उसका दबदबा बना हुआ है। डोनाल्ड ट्रंप जब से अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं, यह दबदबा खटाई में पड़ता नज़र आ रहा है। फ्रांस और जर्मनी के नेताओं से ट्रंप की जुबानी मुठभेड़ कई बार हो चुकी है।

ट्रंप ने यदि नाटो को अब ‘बेकार’ कहा है तो फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुअल मेक्रो ने उसे ‘जिंदा लाश’ करार दे दिया है। तुर्की इससे भी आगे बढ़ गया है। अब तुर्की और अमेरिका के बीच तलवारें खिंच गई हैं। हो सकता है कि तुर्की अब नाटो को खत्म करने की शुरुआत ही कर दे।

इसके तीन कारण हैं। पहला, तुर्की रुस से एस-400 मिसाइल खरीद रहा है, जिसका अमेरिका सख्त विरोध कर रहा है। अमेरिका को शक है कि वह नाटो देशों को जो एफ-35 एस विमान दे रहा है, उन पर ये रुसी मिसाइल जासूसी करेंगे। अमेरिकी सीनेट ने इस सौदे पर प्रतिबंध लगा दिया है। दूसरा, अमेरिका तुर्की के दो सैन्य अड्डों, इंसिरिलिक और कुरेसिक, को बंद करने के संकेत दे रहा है। तुर्की राष्ट्रपति रिसेप तय्यब एर्दोगन ने घोषणा कर दी है कि यदि तुर्की पर प्रतिबंध लगाए गए तो उक्त दोनों अड्डे बंद कर दिए जाएंगे।

तीसरा, अमेरिका इस बात से चिढ़ा हुआ है कि सीरिया के जिन कुर्द लोगों की वह सक्रिय मदद कर रहा है, उनके खिलाफ तुर्की अपनी फौज का इस्तेमाल कर रहा है। रुस के साथ मिलकर वह कुर्दों को दबाने की कोशिश कर रहा है। व्यावहारिक तौर पर सीरियाई युद्ध में तुर्की रुस का सहयोगी बन गया है।

इसी प्रकार लीबिया में भी तुर्की अपनी सेना भेजने की घोषणा कर चुका है, जो वहां जाकर उस गठबंधन से लड़ेगी, जिसका समर्थन अमेरिका और नाटो देश कर रहे हैं। तुर्की के इस रवैए से अमेरिका बहुत परेशान है, क्योंकि तुर्की में यूरोप की सबसे बड़ी फौज है और वह एक मुस्लिम देश है।

तुर्की के लोग यूरोप के लगभग सभी देशों में फैले हुए हैं। यदि तुर्की नाटो से बाहर हो गया तो नाटो के भंग होने की शुरुआत तो हो ही जाएगी, यूरोपीय देशों की परेशानी भी बढ़ जाएंगी।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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