दो ‘दुश्मनों’ के दोस्त बनने का राज !

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कहते हैं कि सियासत का चरित्र ही कुछ ऐसा होता है कि यहां दो नेताओं की दुश्मनी कब, किस मुद्दे पर दोस्ती में बदल जायेगी, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इन दिनों यही सब बिहार की राजनीति में देखने को मिल रहा है जहां जाति आधारित जनगणना कराये जाने के मसले पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव एक साथ आ गए हैं लेकिन केंद्र सरकार ने संसद के इस सत्र में स्पष्ट कर दिया है कि 2021 में होने वाली जनगणना जातीय आधार पर नहीं होगी दरअसल, जातिगत जनगणना की मांग के पीछे एक बड़ा सियासी मकसद है। देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट 1991 में लागू की गई, लेकिन 2001 में हुई जनगणना में जातियों की गिनती नहीं की गई लेकिन पिछले दो दशकों में अन्य पिछड़ी जातियों यानी ओबीसी की संख्या बेहद तेजी से बढ़ी है जिसने देश की राजनीति के समीकरणों को भी बदलकर रख दिया है। इन सालों में ओबीसी समुदाय का सियासत में भी तेजी से दखल बढ़ा है। केंद्र से लेकर राज्यों तक की सियासत में ओबीसी समुदाय की तूती बोलने लगी और राजनीतिक दलों को भी उनके बीच अपनी पैठ जमाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

चूंकि बिहार में ओबीसी के बीच आरजेडी का प्रभाव तेजी से बढ़ा है, लिहाज़ा नीतीश भी ये जानना चाहते हैं कि आखिर उनके राज्य में कितने ओबीसी वोटर हैं, ताकि उनका विश्वास हासिल करने के लिये उसी हिसाब से आगे की राजनीति की जाये। यही कारण है कि वे जाति आधारित जनगणना कराये जाने का प्रस्ताव दो बार विधानसभा से पारित कराकर केंद्र को भेज चुके हैं लेकिन मोदी सरकार ने उसे मानने से इनकार कर दिया है। चूंकि जनता दल यू केंद्र सरकार में भागीदार भी है, इसलिये नीतीश ने दबाव बनाने के लिए कुछ देर के लिए ही सही लेकिन लालू का साथ लेना उचित व जरुरी समझा । सच तो ये है कि देश में किस समाज की कितनी जनसंख्या है, ये बात सभी जानना चाहते हैं लेकिन केंद्र सरकार तो या, देश में किसी को नहीं मालूम कि किस राज्य में कितने ओबीसी हैं? वहीं, सुप्रीम कोर्ट भी कई बार कह चुका है कि आरक्षण के बारे में कोई भी फैसला आंकड़ों के बिना कैसे हो सकता है, इसलिये सरकार को जाति के आंकड़े जुटाने चाहिएं लेकिन इन्हें जुटाने का काम जान-बूझकर टाला जाता रहा है शायद इसलिये क्योंकि देश में ओबीसी समुदाय की संख्या काफी है, जिसे सत्ता में बैठे लोग सामने नहीं आने देना चाहते।

जातियों के वोट प्रतिशत की बात करें तो एक अनुमान के मुताबिक 55 फीसदी से अधिक ओबीसी वोटर हैं, जिनमें विभिन्न जातियां शामिल हैं। देश के अलग-अलग राज्यों में ये ओबीसी वोटर अलग-अलग पार्टियों के साथ हैं। यूपी में बीजेपी और सपा के बीच ओबीसी वोटर बंटा हुआ है तो बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव के अलावा अब वह बीजेपी के साथ भी जुड़ा है। हालांकि ओबीसी जाति के बढ़ते प्रभाव के बीच ही इन जातियों के नेता लंबे वत से जाति आधारित प्रतिनिधित्व की मांग करते रहे हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार के वत से ही देश के एक बड़े हिस्से में जिसमें बिहार, उत्तर प्रदेश प्रमुख है, यह मांग उठती रही है कि अगर ओबीसी जातियों की 50 फीसदी हिस्सेदारी है तो उनके आरक्षण का अंश सिर्फ 27 फीसदी ही क्यों है? वैसे इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिका लंबित है। जिसमें कहा गया कि है 2021 में होने वाली जनगणना के फॉर्म में धर्म, एससी-एसटी स्टेटस का कॉलम है, लेकिन ओबीसी स्टेटस के बारे में कोई कॉलम नहीं है।

याचिकाकर्ताओं के मुताबिक शिक्षा, रोजगार, चुनाव आदि में आरक्षण लागू करने में ओबीसी की जातिगत जनगणना की अहम भूमिका है बात दें कि भारत में जनगणना 1872 से हो रही है और यह सिलसिला कभी टूटा नहीं है. साल 1931 तक सभी जातियों की गिनती होती थी और जनगणना की रिपोर्ट में सभी जातियों की संख्या और उसकी शैक्षणिक, आर्थिक हालत का ब्यौरा भी होता था.वर्ष 1941 में जो जनगणना की गई उसमें जाति का कॉलम तो था, लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के चलते इसका काम ठीक से नहीं हो पाया और आंकड़े सामने नहीं आए। यही वजह है कि आज भी जब कभी जाति के किसी भी आंकड़े की जरूरत होती है तो 1931 की जनगणना रिपोर्ट का हवाला ही दिया जाता है। भारत में आखिरी जाति आधारित जनगणना अंग्रेजों के दौर में 1931 में हुई थी। अभी तक इसी आंकड़े से ही काम चल रहा है। इसी आंकड़े के आधार पर बताया गया है कि देश में ओबीसी आबादी 52 फीसदी है। जाति के आंकड़ों के बिना काम करने में मंडल आयोग को काफी द्रिचत आई और उसने सिफारिश की थी कि अगली जो भी जनगणना हो उसमें जातियों के आंकड़े इकट्ठा किए जायें।

नरेंद्र भल्ला
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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