कश्मीर के सवाल पर भारत को रोज़ ही किसी न किसी राष्ट्र का सीधा या घुमा-फिराकर समर्थन मिलता जा रहा है। अब तो रुस ने भी कह दिया है कि यह भारत का आतंरिक मामला है। पाकिस्तान का एक भी राष्ट्र ने खुलकर समर्थन नहीं किया है। तालिबान ने भी नहीं। अब पाकिस्तान के लिए सिर्फ एक ही उम्मीद बची है। और वह यह है कि ईद के दिन या 15 अगस्त को कश्मीर में खून की नदियां बह जाएं और उसे सारी दुनिया में शोर मचाने का अवसर मिल जाए।
पहली बात तो यह कि ऐसा ही होगा, यह जरुरी नहीं है और ऐसा होने की आशंका हुई तो फिर इतनी फौज और पुलिस वहां क्या करेगी ? उसका काम हिंसा करना या प्रतिहिंसा करना नहीं है लेकिन हिंसा को रोकना है। वह रोकेगी लेकिन हिंसा को रोकना ही काफी नहीं है। पुलिस और फौज जमीन पर होनेवा ली हिंसा को रोक सकती है लेकिन दिमाग के अंदर पलने वाली हिंसा का रोकना उसके बूते के बाहर की चीज़ है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में कश्मीरियों के फायदे के जो मुद्दे उठाए गए हैं, वे अच्छे हैं लेकिन उनका उतना असर नहीं होगा, जितना कश्मीरी जनता पर उसके नेताओं के भाषणों, मंत्रणाओं, इशारों और उनके अपने सोच का होगा। इसीलिए मैं चाहता हूं कि सरकारी नेताओं और कश्मीरी नेताओं के बीच हार्दिक संवाद हो। वे अपने दिमाग का गुस्सा दिल्ली में खाली करें और आगे की राह बताएं।
5 अगस्त को जो हो गया, वह वापस तो किसी हालत में नहीं हो सकता लेकिन संसद उसमें बहुत कुछ सुधार भी कर सकती है। वह पत्थर की लकीर नहीं है। हमारे विपक्षी नेता इस भ्रम में नहीं रहें कि वे कश्मीर के चूल्हे पर अपनी रोटियां सेक पाएंगे। कांग्रेस अपने किए पर कितना पछता रही है। उससे ज़रा सीखें। यह भी देखें कि भारत के कदम का विरोध करने के लिए पाकिस्तान के सारे सत्तारुढ़ और विरोधी दल एक हो गए हैं और भारत के दल एक-दूसरे पर आक्षेप कर रहे हैं।
मोदी सरकार अफसरों के सहारे चल रही है। उसके पास ऐसे विशषज्ञों और गैर-सरकारी महानुभावों का अभाव है, जो कश्मीरी नेताओं और तालिबान से सीधे बात कर सकें। अजित दोभाल जैसे अफसरों पर हमें गर्व है लेकिन उनकी अपनी सीमाएं हैं। सरकार ने कश्मीर में अत्यंत गंभीर कदम तो उठा लिया है लेकिन आगे आने वाले तूफान के मुकाबले की पता नहीं कितनी तैयारी है ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं