तो घर में ही विपक्ष पैदा हो जाएगा

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कई दिनों से बारिश वैसे ही बरस रही है, पीछा ही नहीं छोड़ रही है। जैसे मोदी जी कांग्रेस के सफाए के लिए जमीन-आसमान एक किए हुए हैं। उन्हें पता नहीं है कि जब संसद में कोई विपक्ष नहीं रहेगा तो घर में ही विपक्ष पैदा हो जाएगा। हम पाकिस्तान और पाकिस्तान हमारा डर दिखाकर जनता का राष्ट्रप्रेम जगाकर एकता बनाए हुए हैं अन्यथा जनता पता नहीं कब की जूते मार-मारकर ठीक कर देती। कर्नाटक के बिके हुए विधायकों की तरह सबको मंत्री पद का लालच देकर, कब तक बहलाया और पटाया जा सकता है? इसके लिए तो कानून में संशोधन करना पड़ेगा कि 15 फीसद ही नहीं बल्कि सभी सांसदों/विधायकों को मंत्री बनाया जा सकता है। ऐसे ही बेगाने मौसम में तोताराम ने संकेत दिया- मास्टर, जब बजट के नाम पर वित्तमंत्रालय वाले देशी घी का हलवा खा सकते हैं तो क्या हम बारिश के इस आशिकाना मौसम में तेल की पकौडिय़ां नहीं खा सकते?

हमने कहा- सुना तुमने? दिल्ली में केजरीवाल ने 200 यूनिट तक बिजली फ्री कर दी है। क्या यह दुराचार संहिता नहीं है? वोट खरीदना नहीं है ? बोला- तो क्या 15 लाख रुपए बैंक खाते में जाना कोई आर्थिक कार्यक्रम था? कम से कम केजरीवाल जुमले तो नहीं छोड़ता। लेकिन बिजली, केजरीवाल और दिल्ली का पकौड़ों से क्या संबंध है? इतना कहकर तोताराम ने एक शेर फेंका- ‘तू इधर-उधर की न बात कर ये बता कि पकौड़े क्यों न बनें? मुझे मोदी के जुमलों का गम नहीं, तेरी दोस्ती का सवाल है। ‘ हमने कहा- तोताराम, तू भले बादाम की बर्फी खाले लेकिन यह ‘इधर-उधर की बात’ मत कर। इस देश में भाषा और शायरी समझने वाले अब नहीं रहे। पता नहीं, कब, किस बात का, क्या अर्थ निकालक र रायता फैला दें। बोला- इधर-उधर की बात मैं कर रहा हूं या तू? मैं पकौड़ों की बात कर रहा हूं और तू मुझे दिल्ली, केजरीवाल और बिजली में उलझा रहा है?

हमने कहा- अभी दो दिन पहले आज़म खान ने अपनी बात इसी शेर से शुरू करना चाहा तो शेर पूरा होने से पहले ही पकड़ा गए। ठीक भी है, जो बात हो सीधी हो। इधर-उधर क्यों भटका-भटकाया जाए? बोला- इसमें क्या हो गया ? यह शेर तो मार्च 2011 में संसद की कार्यवाही के दौरान सुषमा जी ने भी मनमोहन जी के लिए कहा था- ‘तू इधर-उधर की न बात कर ये बता कि काफिला क्यों लुटा,मुझे रहजऩों से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।’ तब तो कुछ नहीं हुआ। इस शेर का मनमोहन जी ने जो ज़वाब दिया था उस पर भी कोई हंगामा नहीं हुआ हालांकि ‘अतिशालीन सांस्कृतिक माननीयाओं’के हिसाब से वह कोई कम विध्वंसक नहीं था- माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक देख, मेरा इंतज़ार देख। हमने कहा- लेकिन अब तू इधर- उधर की बात कर रहा है। यह तो बताया ही नहीं काफिला क्यों लुटा? बोला- मुझे तो रहजऩ और रहबर में कोई फर्क दिखाई दे नहीं रहा है। बड़ी-बड़ी बातें हो जाएंगी लेकिन कोई भी यह नहीं बताएगा कि काफिला क्यों लुटा? इन रहबरों के भरोसे रहोगे तो इधर-उधर की बातें होती रहेंगी और काफिले लुटते रहेंगे।

रमेश जोशी
(लेखक वरिष्ठ व्यंगकार हैं ये उनकेनिजी विचार हैं)

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