तो, ऐसा है, अपना लोकतंत्र

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हम भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानते हैं। मतदाताओं की संख्या के हिसाब से देखें तो यह बात ठीक है। और यह इस दृष्टि से भी ठीक है कि पिछले 72 साल से यह जस का तस चला आ रहा है। अन्य पड़ौसी देशों या कुछ अफ्रीकी देशों की तरह यहां कभी फौजी तख्ता-पलट नहीं हुआ। 1975-77 में आपात्काल जरुर ठोका गया लेकिन वह अपवाद रहा। चुनाव बराबर होते रहे और राज-मुकुट शांतिपूर्वक एक सिर से दूसरे सिर पर सजते रहे। इतने लंबे-चौड़े और इतनी जनसंख्यावाले देश में चुनाव करवाना किसी चमत्कार से कम नहीं है लेकिन यह चमत्कार इस देश में लगातार होता रहा है। तो भी क्या हम अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा या सबसे महान लोकतंत्र कह सकते हैं ? यह कहने के लिए हमें बहुत लंबा सफर तय करना पड़ेगा। देश के 60-70 या 80-90 करोड़ लोग जो वोट डालने जाते हैं, वे किस आधार पर अपना वोट डालते हैं ? क्या उसका फैसला उस उम्मीदवार या उस पार्टी के गुण-दोष पर होता है ? हां, कभी- कभी होता है लेकिन ज्यादातर उसका आधार जाति, संप्रदाय, मजहब, रिश्वत, शराब या लालच होता है।

चुनाव-अभियान के नायकों को क्या हम कभी नीतियों, सिद्धांतों, सर्वहितकारी मुद्दों पर गंभीर चर्चा चलाते हुए देखते हैं ? वे एक-दूसरे पर निरंकुश शब्दों में बेलगाम आरोप लगाते रहते हैं। राष्ट्रीय चुनावों का स्वरुप कभी-कभी मैखानों के दंगल-सा हो जाता है। यह तो दिखाई पड़ता है लेकिन हमारे लोकतंत्र के खोखलेपन को उजागर करनेवाले कई तथ्य बिल्कुल अदृश्य हैं। उन्हें मैं आपके विचारार्थ पेश कर रहा हूं। पहला, भारत में आज तक एक भी संसद ऐसी नहीं चुनी गई, जिसके जीते हुए सदस्यों को 51 प्रतिशत वोट मिले हों याने हमारी संसद सचमुच जनता की प्रतिनिधि नहीं है। दूसरा, आज तक एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी है, जिसे कुछ वोटरों के 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हों। वर्तमान भाजपा सरकार को सिर्फ पड़े हुए वोटों का 31 प्रतिशत मिला था।

तीसरा, आज तक भारत में नरसिंहराव के अलावा, एक भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ, जो अपने चुनाव-क्षेत्र के कुल वोटरों के 50 प्रतिशत वोट से जीता हो। तो ऐसा है, अपना लोकतंत्र ! इसे सुधारने के लिए क्या-क्या किया जाए, वह फिर कभी !

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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