तय है, दो-तीन साल तो संकट रहेगा

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नरेंद्र मोदी, अमित शाह और निर्मला सीतारमण दुनिया को इधर से उधर कर दें, ये देश में काम धंधे की पुरानी भाप लौटा नहीं सकते। अर्थशास्त्री, जानकार अगले दो महीने विकट बता रहे हैं। मतलब नवरात्रि से नवंबर के त्योहारी सीजन को निर्णायक बता रहे है। दो महीने यदि खरीदारी ठीक हुई तो आर्थिकी पटरी पर लौट आएगी। अपना मानना है कतई नहीं। मंदी और बरबादी का असली संकट आने वाले दो-तीन सालों में दिखेगा। दो-तीन महीने का त्योहारी सीजन भी खरीददारी याकि मांग के मामले में फ्लॉप जाना है। अगले छह महीने में याकि अप्रैल 2020 के वित्तीय वर्ष में शुरुआत यदि चार प्रतिशत विकास दर के अनुमानों के साथ हो तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

दरअसल कोर संकट है कि (वजह नोटबंदी और अफसरशाही वाला भ्रष्टाचार) उद्यमशील से लोगों का, मतलब धंधेबाज लोगों का कामधंधे से विश्वास उठ जाना है। पैसा कमाने या धंधा करने की मनोवैज्ञानिक भाप खत्म हो गई है। पीवी नरसिंह राव से ले कर आठ नवंबर 2016 (नोटबंदी की घोषणा) के दिन तक भारत के नागरिकों को पैसा कमाने की धुन थी। छोटे-मोटे अनौपचारिक क्षेत्र में काम का हौसला था और वह यह गारंटी मान रहा था कि भारत के भ्रष्ट तंत्र के बावजूद काम करना संभव है। पैसे की आग सर्वत्र थी। पैसा लूटो, पैसा कमाओ, पैसा बांटो और अमीर बनने के लिए धंधा करो। इस धुन में सिस्टम को बाईपास करने, अफसरों की नजर से बचाने के दस तरह के जतन, दस तरह की कंपनियां बनी थीं। सबके लिए दिल्ली दरबार का सनातनी क्रोनी पूंजीवाद खुला हुआ था।

मतलब धंधे के सौ फूल, सौ जरिए खुले हुए थे। दो नंबर की अर्थव्यवस्था तब सफेद अर्थव्यवस्था से बड़ी थी। और नोट रखें इस बात को कि भारत में 15 अगस्त 1947 के बाद, अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद काली, दो नंबर की अर्थव्यवस्था सुरसा की तरह फैली तो वजह माईबाप याकि समाजवादी सरकार याकि भ्रष्ट अफसरशाही व तंत्र के चलते थी। भारत के नेताओं-अफसरों ने मिल कर जनता को, देश की उद्यमशीलता को लाइसेंस-कोटा-परमिट-निगरानी-कराधान- हाकिमी अनुमतियों-डंडों से जैसे लूटा तो उस अनुसार, उसके बाईप्रोडक्ट में समानांतर काले धन की आर्थिकी बनी और बढ़ती गई। जनता मूल में दोषी नहीं थी तंत्र था।

अपनी थीसिस है कि 15 अगस्त 1947 की आधी रात का अंधेरा काली अर्थव्यवस्था का प्रारंभ इसलिए था क्योंकि नेहरू ने न केवल सरकार को माईबाप बनाया, बल्कि लूटने का स्थायी कल्पवृक्ष भी बनाया। कल्पवृक्ष पर मुऩाफे के, क्रोनी पूंजीवाद के तमाम फल लगे लेकिन उनका रस तंत्र की जड़ों में बंधा हुआ था। तंत्र ही फल पैदा करने वाला, फलों में रस भरने वाला और उसे सर्वाधिक अंश चूसने वाला भी था (आज भी है)।

इस बात को इस तरह भी समझें कि नेताओं ने, अफसरों ने भ्रष्टाचार कर क्रोनी पूंजीवाद बनाया, अंबानी-अदानी पैदा किए या रिश्वत का पैसा दे कर बिल्डर पैदा किए, बिल्डरों के बनाए मकानों में पैसा निवेश किया तो आम जनता, मध्य वर्ग को भी उससे दस-बीस टका काम धंधा, अनौपचारिक रोजगार, मुनाफा सब मिला। इकोनोमी का पूरा मॉडल सब खाओ और सब लूटो का था।

और भारत का दुर्भाग्य, जो आठ नवंबर 2016 की राहु-केतु की दशा में नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि भारत की जनता चोर है। इसलिए जनता बैंकों के आगे लाइन में लग अपना काला पैसा जमा करवा कर उसे सफेद बनाए! जबकि हिसाब से तंत्र को लाइन में लगाना था। तंत्र और अफसरों को लाइन में लगा कर कहना था कि तुम अपने आपको सफेद साबित करो।

पर प्रधानमंत्री मोदी ने आज तक इस बात को नहीं माना है या नहीं समझा है कि भारत की जनता चोर नहीं है, बल्कि असली कसूरवार वह तंत्र है, वे अफसर और नेता हैं, जिन्होंने कानून-कायदे-व्यवस्था ऐसी भ्रष्ट बनाई है, जिसका काम ही नादिरशाही की लूटने की विरासत को स्थायी चलवाए रखना है। नरेंद्र मोदी ने उस तंत्र को, केंद्र सरकार के लाखों कर्मचारियों को खत्म नहीं किया, उन पर डंडा नहीं चलवाया, बल्कि देश की उद्यमशीलता, देश के लोगों के आगे डंडा बनवाया कि अपना पैसा अधिक से अधिक अफसरों के आगे पारदर्शी बनाओ। सरकार पारदर्शी नहीं, अफसर पारदर्शी नहीं लेकिन जनता पाई-पाई के हिसाब का चौबीसों घंटे रिटर्न भरे। नोटिस झेले। छापे झेले और नई रेट के नजरानों के साथ लूटे।

नतीजा सामने है। कॉफी डे जैसे ब्रांड को बनाने वाले अरबपति सिद्धार्थ ने इनकम टैक्स के एक कारिंदे से तंग आ आत्महत्या कर मां भारती से मुक्ति पाई। बावजूद इसके मोदी राज को हकीकत का सत्व-तत्व समझ नहीं आया। सो, भारत की उद्यमशीलता में वह भाप, वह ऊर्जा, वह हूक ही खत्म है, जिससे आर्थिकी के चक्के चला करते हैं। नवंबर 2016 से ले कर इस नवंबर 2019 के पूरे दौर में पैसे कमाने की धुन लिए छोटे-बड़े सभी कारोबारियों ने अपने आपको काम करने से रोका है। थामा है। तभी पैसे का चलन ही खत्म है। इनकी भाप खत्म हुई तो सरकारी तंत्र याकि नेताओं-अफसरों की लूट के पैसे को भी आगे और धंधे के पंख नहीं मिले हैं। पांच सालों में इनका लूटना और ज्यादा हुआ लेकिन वह पैसा खर्च नहीं हुआ, बल्कि लूटा पैसा दबता जा रहा है। मतलब संकट सप्लाई साइड या डिमांड साइड का नहीं है, बल्कि पैसे की याकि लक्ष्मीजी की चंचलता के खत्म होने का है। सब इस मनोविज्ञान में जी रहे हैं कि पैसा बचाए ऱखो और भजन करो। गौ पालन करो व भारत माता की जय बोल पाकिस्तान से लड़ो।

इसलिए भारत में मंदी या संकट अर्थशास्त्र की रीति-नीति या वैश्विक प्रभावों वाले अर्थ लिए हुए नहीं है। उससे नीम और करेला चढ़ा वाला मामला भर बनेगा। दुर्भाग्य और खतरनाक व खोखला बनाने वाली बात यह है कि मोदी-शाह जोड़ी तंत्र को, अफसरों के डंडों को, उनके भ्रष्टाचार को सुरसा की तरह ऐसे बढ़ा रहे हैं कि भाप, ऊर्जा और पैसा दिनों दिन आगे और सूखेगा। ताजा मिसाल ट्रैफिक उल्लंघन का नया कानून है। नितिन गडकरी ने कितनी ही सदनियति से कानून बनाया हो लेकिन इससे मोटर साइकिल चलाने वाले गांव के नौजवान से ले कर महानगरों के ट्रैफिक में जूझते कार मालिकों पर पुलिस व ट्रैफिक वालों की वह लूट बनेगी कि नादिर शाह भी नरक में शर्माएगा। और यह भी जानें कि मोदी-शाह-सीतारमण-गडकरी में किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि मंदी के ऐसे वक्त में ऐसे कानून को लागू करवाना ऑटो क्षेत्र के लिए भी दिवाला बढ़ाने वाली बात हो सकती है।

सो, भूल जाएं कि दो महीने या छह महीने में मंदी खत्म होगी। भारत की आर्थिकी का पाकिस्तानीकरण इतनी जल्दी खत्म नहीं होने वाला है।

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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