कुन दिनों जिधर सिर घुमाओ वहीं कुछ भी ऊटपटांग चलता दिख रहा है। कहीं भी सहीशाट कुछ नहीं। मीडिया (चैनलिया) मेले का फूहड़ सर्कस हो गया लगता है। सोशल मीडिया का तो कहना ही क्या..! कटपेस्ट, फोटोशॉप, इसका सिर उसका धड़ वाले मीस। बिलकुल जीती जागती प्रपोगंडा मशीन। आसमान में झूठ का गुबार इतना घना है कि सच की झीनी रोशनी का भी आ पाना मुश्किल। पहले कभी गांव मोहल्ले एक दो पागल दिखते थे, अब तो समूह के समूह ही पागल हैं। इनकी हरकतें ऐसी कि वास्तविक पागल इन्हें देखकर चंगा हो जाए। मुद्दे बिन सिरपैर के चल रहे हैं। एक का कान दूसरे की नाक। कुछ सूझ ही नहीं रहा। चैनलियों का इतना सतही और फूहड़ चेहरा भी सामने आएगा कभी कल्पना नहीं की थी। उदारीकरण के बाद जब दूरदर्शन का वर्चस्व टूटा और मनोरंजनी व खबरिया चैनल आए तो उम्मीद बंधी कि चलो अब किसी वीआईपी की मौत पर रेडियो-टीवी में दिनभर मातमी संतूर और शोकाकुल शहनाई सुनने से मुक्ति मिलेगी। लेकिन मुक्ति क्या मिली, घरों का ध्वनि प्रदूषण सीमा से न जाने कितने डेसीबल आगे बढ़ गया।
चीख-चिल्लाहट, मोर्चाबंदी, दंगल, अखाड़ा, सनसनी, मुकाबला, उठाके पटक दूंगा, यह सब ड्राइंग रूम में आ गया। ऐसा लग रहा है जिंदा जला दूंगा, जीने नहीं दूंगा, खन के गाड़ दूंगा, जैसी फिल्में अब न्यूज प्रोग्राम के रूप में ढलकर प्रकट हो रही हैं। फिल्मवाले हारर फिल्मों महिला पात्रों को भूतनी या डायन बनाकर पेश करते रहे हैं। उसी तरह पुरुषवाची वर्चस्व को तोड़ते हुए अब टीवी चैनलों ने मोर्चे पर एंकरानियों को तैनात कर दिया। यही लेह के रोहतांग दर्रे और गलवान घाटी में दिखती हैं और यही पलक झपकते ही हाथरस में प्रकट हो जाती हैं। उस दिन का तमाशा गजब का था। एंकरानियां चीखते हुए मैराथन दौड़ रही थीं। चीख- चिल्लाहट ऐसी जैसे गुजरे जमाने में सब्जी मंडी में कुजडऩे अपना ठीहा जमाने के लिए लड़ा करती थीं। क्या मोहल्ले में..तू रांड़ ..तू रंडी जैसे गालियां सुनने को मिलती थीं। हाथरस में उस अभागन की मौत को मीडिया मसालेदार इवेंट बनाने में जुटा था। विपक्ष के लोग उस पर बैंडबाजा वालों की भूमिका में थे। देखोदेखो कौव्वा कान ले गया..कान ले गया, सब कौव्वे के पीछे दौड़ रहे थे अपना कान कोई नहीं टटोल रहा था।
एक एंकरनी चैनल का लोगो लिए पुलिस के बैरीकेड में वे इस तरह झूम रहीं थीं मानों कोई क्रांतिकारी भगतसिंह की भांति अंग्रेजों की एसेंबली में बम फोडऩे जा रहा हो। दूसरे चैनल का पत्रकार कुछ और चुगली कर रहा था- देखिए इन मोहतरमा का सबकुछ फिक्स है। कुछ देर पहले ये इसी झगडऩे वाले दरोगा के साथ चाय सुटक रहीं थी। देखिएगादो चार गरमागरम लाइव के बाद ठंडी पड़ जाएंगी। उस एंकरनी मैडम ने तो हद ही कर दी। इलाके के एसडीएम के मुंह में अपने चैनल का चोंगा घुसेड़ते हुए जंगली बिल्ली की भांति गुर्रा रहीं थी- बोलो तुमने मेरे साथ किस तरह बदतमीजी की थी..? ये सबसे तेज चैनल है दुनिया देखे तुहारी बदतमीजी, लो करो..करो न! वह अधिकारी सन्न। माथा ठोक रहा होगा कि क्या यही दिन देखने के लिए पढ़-पढ़ के जवानी होम की थी..। दूसरा चैनल खोला तो देखा उसकी तीन एंकरनियां एक साथ दौड़ लगा रहीं थी..। उनके अगल-बगल अधिकारी व पुलिस के जवान दौड़ रहे थे। वो बार-बार चीख-चीखकर बता रहीं थी कि यह मेरे चैनल की मुहिम है सिर्फ मेरे, हम सबसे पहले इस गांव में घुस रहे हैं।
दौड़ रहे थुलथुल अफसरों और दिनरात से डटे पुलिस वालों की दशा देखी नहीं गई तो मैने तीसरा चैनल लगाया। यहां और भी कमाल था। एंकरनी साहिबा चैनल का चोंगा लिए चिता से जली हुई हड्डियों का क्लोजप शाट दिखा रहीं थी..। वो इस खोज में थीं कि वो गर्दन वाली हड्डी मिल जाए जो तोड़ दी गई थी। वो अफसोस जता रहीं थी- सॉरी हम उसकी कटी हुई जीभ नहीं दिखा सकते, क्योंकि दुष्कर्म के बाद उसकी आधी वह कमीना अपनी जेब में लेकर भाग गया था। आधी इस चिता में राख में बदल चुकी है। मोहतरमा बार-बार दोहराते जा रहीं थी। देखिए सिर्फ यही चैनल जो सबसे विश्वसनीय और तेज है। फिर बोलीं- तो देखिए राख यह वही चिता है जहां पीडि़ता को जलाया गया है। लकड़ी के कोयले दिख नहीं रहे इसलिए यह पक्का है कि पेट्रोल से जलाया गया होगा। और पेट्रोल अफसरों की गाडिय़ों का भी हो सकता है। शायद इसीलिए वे हमें इस गांव में आने से रोक रहे थे कि कहीं मैं उनके पेट्रोल की गंध अपने चैनलों के दर्शकों तक न पहुंचा दे। बहरहाल मेरे साथ देखते रहिए। मुझे और मेरा ये चैनल..। मीडिया का ऐसा फूहड़ चेहरा कोई दो महीने से देख रहे हैं।
पहले सुशांत वाला मामला आया। उसमें हद कर दी। अवसाद की एक घटना को इतने ट्विस्ट दिए कि ओरछोर गुत्थमगुत्थ हो गए। चले थे देहरादून के लिए पहुंच गए रंगून। ड्रग, हवाला, पार्टियां इसमें बिध गए। बड़ी मुश्किल से सुशांत की आत्मा इनके मकडज़ाल से मुक्त होकर यमलोक पहुंची। एस की रिपोर्ट के बाद हत्या की थ्योरी फुस्स हो गई तो वहां से खिसककर। तो वहां से सीधे हाथरस में धावा बोल दिया। कहते हैं कि यह सब टीआरपी के लिए करना पड़ता है। टीआरपी से धंधा चलता है, इसलिए हर चैनल अंधा चलता है। गाडऱों की तरह कुंए की ओर। एक गाडर गिरी तो सभी भड़भड़ाके वहीं गिरेंगी। अकल का इस्तेमाल करने की फुरसत कहां। इनसब बिखरे-बिखरे वाकयातों को जोड़कर कुछ लिखने जा रहे थे कि ब्रेकिंग आ गई-बतोलेबाज टीआरपी चोर निकला। अब कल से हाथरस से सभी कैमरे लौटकर टीआरपी चोरी का सच खोलने में भिड़ेंगे। फिल्मकार प्रियदर्शन ऐसे ही बे सिरपैर के वाकयातों पर सुपरहिट कामेड़ी फिल्में रचते आये हैं। उनकी फिल्मों के दृश्य टाइमिंग और स्पीड के लिए जाने जाते हैं। चैनलिए उनसे दस कदम आगे निकले।
फिल्म को इतनी स्पीड से न प्रियदर्शन दौड़ा सकते हैं और दादा कोड़के होते तो वे भी इस मीडियावी फूहडता के आगे निढ़ाल हो जाते। और आखिरी में एक ऊटपटांग टाइप का सच्चा किस्सा। बात भोपाल में एक सोसायटी की मैडम की है। मैडमजी के पास अपार्टमेंट में रहने वाले सभी नरनारियों का कच्चा चिट्ठा है, ऐसा वो दावा करतीं। जब भी उन्हें मौका मिलता वे रस लेकर बतातीं कि किसके घर कौन घुसता है..और जब पति ओवरटाइम में रहता है तो कौन प्रेमी के संग मैटनी जाता है। उनके चिट्ठे में एक-एक करके सभी आते गए। परेशान सोसायटी वालों ने मैडम का कच्चा चिट्ठा बनाना शुरू कर दिया। मैडम के हर मूवमेंट पर जासूसी नजर। और अंतत: खुलासे का दिन आ ही गया। सबके चरित्र को किस्सागोई में फिल्माने वाली मैडम की एक दिन अपार्टमेंट की छत पर सही-सही फिल्म बन गई जब वे पति की गैर मौजूदगी में मोहल्ले के दूधवाले के साथ रास रचा रहीं थी। कहानी का मतलब यह कि दूसरे की बेमतलब ताकझांक करने और चूं चूं का मुरब्बा बनाने वाले खबरिया चैनलों के चरित्र का भी फिल्मांकन शुरू हो चुका है देखते जाइये, एक के बाद एक, सभी के रास के रहस्य खुलेंगे। एक ऊटपटांग विषय पर इससे ज्यादा ऊटपटांग और लिखा भी क्या जा सकता है..?
जयराम शुक्ल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)