हमारी लोकतांत्रिक राजनीति में राज्यों और केंद्र के बीच का समीकरण अरसे से बिगड़ा हुआ है। मसला संघवाद का नहीं है। इसका ताल्लुक तो राजनीति की उस संरचना से है, जिसके तहत मुख्यमंत्रियों को लगातार आलाकमान का आशीर्वाद लेते रहना पड़ता है।
चाहे इंदिरा गांधी का जमाना हो, या नरेंद्र मोदी का- केंद्र में तो सत्ता स्थिर रहती है, लेकिन आलाकमान की भूमिका के कारण राज्यों के पैमाने पर अक्सर असुरक्षा, अस्थिरता और उथल-पुथल में फंसी हुई दिखती है। खास बात यह है कि ऐसा लाज़िमी तौर पर सत्ताधारी पार्टी के पास विधायकों की कमी के कारण नहीं होता।
मौजूदा स्थितियां इस हकीकत का सबसे बड़ा सबूत हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास सवा तीन सौ विधायक हैं, लेकिन चुनाव से आठ महीने पहले योगी की कुर्सी के ऊपर अंदेशों के बादल मंडराने लगे हैं। येदियुरप्पा और शिवराज सिंह चौहान भी स्वयं को सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे हैं। इन्हें खतरा विपक्ष से नहीं है। उन्हें लग रहा है कि मोदी-शाह नड्डा का आलाकमान उनकी पीठ से अपना हाथ कभी भी हटा सकता है।
कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की हालत भी बेहतर नहीं है। पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पर्याप्त विधायक होते हुए भी तीनों मुख्यमंत्री दिल्ली स्थित आलाकमान के खास तरह के रुख के कारण संकट में फंसे हुए हैं। गांधी परिवार की तरफ से अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल को साफ तौर पर हरी झंडी न मिलने के कारण सिद्धू-बाजवा, पायलट और जूदेव की दावेदारियां मुख्यमंत्रियों की सत्ता को कमजोर करने में लगी हुई हैं। स्थिरता केवल उन्हीं राज्यों में है जिनमें राष्ट्रीय पार्टियों की न हो कर क्षेत्रीय शक्तियों की सरकारें हैं। क्षेत्रीय शक्तियों की राजनीति का ढांचा अलग तरह का है।
उनके मुख्यमंत्री को आलाकमान के आशीर्वाद की जरूरत नहीं होती, क्योंकि वहां सीएम ही आलाकमान होता है। ऐसी सरकारें केवल तभी अस्थिर होती हैं जब शीर्ष नेतृत्व के भीतर ही बगावत हो जाए। ओडीशा में ऐसा हो चुका है। नवीन पटनायक ने उस बगावत को सिर उठाने से पहले मिट्टी में मिला दिया था। ऐसी सफल बगावत का उदाहरण तेलुगु देशम पार्टी का है जब एनटीआर की उत्तराधिकारी लक्ष्मी पार्वती की राजनीति रामराव के दामाद चंद्रबाबू नायडू ने ही खत्म कर दी थी।
पुरानी कांग्रेस (इंदिरा गांधी से पहले) में एक क्षत्रप नाम की हस्ती हुआ करती थी जो सूबों की राजनीति पर अपनी पकड़ के कारण केंद्र को प्रभावित करने की हैसियत रखता था। पुरानी भाजपा (नरेंद्र मोदी से पहले) में भी क्षत्रप होते थे। आज उनका नामो-निशान नहीं है। अब सीएम आलाकमान का मोहरा होता है।
हर चुनाव ‘सर्वोच्च नेता’ के चेहरे पर लड़ा जाता है। लोकतांत्रिक राजनीति का इससे अधिक केंद्रीकरण नहीं हो सकता। परिणाम ये हुआ है कि केंद्र की सत्ता राज्यों की राजनीति का योगफल नहीं रह गई है। अगले 3 सालों में 16 राज्यों में चुनाव होंगे। क्या इन चुनावों में कांग्रेस-भाजपा में कोई क्षत्रप उभरता दिखाई देगा? अगर ऐसा हुआ तो उसके जरिए आलाकमानपरक राजनीति की इस विकृति में राज्य अपनी लोकतांत्रिक दावेदारियों की नई शुरुआत कर सकेंगे।
( लेखक अभय कुमार दुबे सीएसडीएस दिल्ली में प्रोफेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक है, ये उनके निजी विचार हैं)