आज भारत में ब्राह्मण-विरोध मानो ऑफीसियल वैचारिकता हो गई है। साासीन हिन्दुत्ववादी भी विचारहीनता होकर इसमे अपना नाम लिखा रहे हैं। इतिहास से अनजान लोग जब नीति-निर्धारण करें, तो स्थिति की भयावहता समझें। यह स्वयं परख सकते हैं कि ब्राह्मण-निंदा का आरंभ विदेशी क्रिश्चियन मिशनरियों ने किया, जो हिन्दू धर्म के घोषित शत्रु हैं। उन से पहले सभी देशी-विदेशी लेखकों, विद्वानों, आदि ने ब्राह्मणों और हिन्दू समाज की भूरि-भूरि प्रशंसा ही की है। लेकिन सब से पहले फ्रान्सिस जेवियर (16वीं सदी) ने ब्राह्मणों पर हमला शुरू किया। उन्होंने कहा कि ब्राह्मण चूँकि समाज पर प्रभाव रखते हैं, इसलिए हिन्दुओं को क्रिश्चियन बनाने के लिए इसे तोडऩा जरूरी है। यही ब्राह्मण-विरोध के सिद्धांत-व्यवहार का आदि और अंत है। जिसे आज भी जाँच सकते हैं। हरेक ब्राह्मण-निंदक साथ ही हिन्दू धर्म-समाज को तोडऩे, लड़ाने का भी समर्थन करता हुआ या उस से बेपरवाह मिलेगा। अर्थात ब्राह्मण-विरोध मूलत: और अंतत: हिन्दू समाज को मिटाने की नीति का अंग है। इसके लिए धूर्तता और बल-प्रयोग भी होता रहा है। इस का भी आरंभ फ्रान्सिस जेवियर ने ही किया, हालाँकि पुर्तगाली औपनिवेशिक शासकों ने उन्हें उतनी सेना नहीं दी। फिर भी, गोवा में जेवियर ने भयावह पैमाने पर जुल्म ढाये।
हिन्दू मंदिरों को तोडऩे से हुई खुशी का वर्णन उन्होंने स्वयं किया। उन का पहला निशाना ब्राह्मण थे। इसीलिए हिन्दू राजा लोग लड़ाई के बाद पुर्तगालियों से संधियाँ करने में यह भी लिखवाते थे कि वे ब्राह्मणों को नहीं मारेंगे। किन्तु मिशनरियों का अधिक मारक प्रहार वैचारिक था। उस के दुष्प्रभाव आज फल-फूल रहे हैं। निरंतर दुष्प्रचार ने शिक्षा में भी ऐसी विषैली बातें घुसा दीं, जिन का हिन्दू समाज के विरुद्ध जम कर इस्तेमाल होता है। हमारे अधिकांश नेता और बुद्धिजीवी आज ब्राह्मण-द्वेषी बातों को सच मानते हैं। चाहे पहले-पहल चर्च-मिशनरी प्रकाशनों के सिवा वे बातें कहीं नहीं मिलती। ऊँच-नीच, विशेष मान, आदि की मानवीय भावनाएं या कमियाँ तो मानवजाति में हर कहीं हैं। लेकिन भारत में इसे विकृत करके ‘ब्राह्मणवाद’ गढ़ डाला गया। डॉ. कूनराड एल्स्ट के अनुसार, ”विश्व इतिहास में यहूदी-विरोध के सिवा ब्राह्मण-विरोध ही मिशनरियों द्वारा चलाया गया सब से बड़ा दुष्प्रचार अभियान है।’ वस्तुत: पहले मिशनरियों ने ब्राह्मणों को धर्मांतरित कराना चाहा था, ताकि आम हिन्दुओं को क्रिश्चियन बनाना सरल हो। चीन, जापान, कोरिया में उन की ऐसी रणनीति कुछ सफल भी हुई थी। अग्रगण्य लोगों को क्रिश्चियन बना कर शेष को फुसलाना। पर जब उन्हें ब्राह्मणों में सफलता न मिली, तब वे दुश्मन हो गए। ब्राह्मणों को मिटा देने की नीति बनी।
केवल इस के तरीकों पर भिन्नता रही। रॉबर्ट नोबिली हिंसा के बदले धोखाधड़ी को मुफीद मानते थे। वे ब्राह्मण-वेश में अपने को ‘रोमन ब्राह्मण’ कह कर ‘येशुर्वेद’ (जीससवेद) को 5वाँ वेद कहते थे, कि वह भारत में ‘खो गया’, मगर रोम में सुरक्षित है।अर्थात पहले मिशनरियों ने उच्च-वर्गीय नीति रखी थी। सेंट पॉल ने तो गुलामी-प्रथा का सक्रिय समर्थन किया था। पोप ग्रिगोरी (16-17वीं सदी) ने भारत में चर्च को जातिभेद रखने को कहा। चर्च ने 18-19वीं सदी तक समानता के विचार का कड़ा विरोध किया था। वे विशिष्ट-वर्गीय, आनुवांशिक साा के पक्षधर थे। यह तो पिछले डेढ़ सौ साल की बात है जब समानता की हवा दुनिया में फैली, तब चर्च ने रंग बदल कर अपने को शोषित-पीडि़त समर्थक बताना शुरू किया। अत: भारत में सवा-सौ साल पहले तक मिशनरियों में निम्न जातियों के प्रति चिंता जैसा कोई संकेत नहीं मिलता, जिस का वे दावा करते हैं। गोवा में कई चर्च आज भी उच्च और निम्न जाति के लिए आने-जाने के अलग दरवाजे रखते हैं! ऐसी चीज किसी हिन्दू मंदिर में कभी नहीं रही। वस्तुत: जातियों के कारण भी इस्लाम और क्रिश्चियनिटी के हमले झेलकर हिन्दू बचे रह सके। हमारी हालत अफ्रीका या पश्चिम एशिया जैसी नहीं हुई, जहाँ की सभ्यताएं इस्लाम ने कुछ ही वर्षों में समूल मिटा दी। गत सौ साल से मिशनरियों के मुख्य शिकार निम्न जातियाँ और वनवासी हैं।
वे ब्राह्मणों को ‘उत्पीड़क’ और मिशनरियों को ‘संरक्षक’ बता कर प्रचार करते हैं। शिक्षा में ब्राह्मण-विरोध भरना हिन्दू-विध्वंस का ही एक चरण है। मिशनरी स्कूलों में भारतीय इतिहास व संस्कृति का विकृत पाठ पढ़ाया जाता है। निरंतर प्रचार से अबोध छात्र कई झूठी बातें आत्मसात कर लेते हैं। वे यह भी नहीं जानते कि यहाँ हर जाति के लोग महान गुरू, कवि, ज्ञानी और संत होते रहे हैं। वस्तुत: ब्राह्मणों ने धर्मांतरित कराए गए मुसलमानों, क्रिश्चियनों को वापस हिन्दू बनाने के काम भी किए। यह भी मिशनरियों के कोप का कारण था। अब्बे द्यूब्वा और रेवरेन्ड नॉमन मैक्लियॉड ने ब्राह्मणों को बुरा-भला कहा था। द्यूब्वा ने ब्राह्मणों को ‘बुराई का भंडार’ बताया, क्योंकि उन्होंने चर्च की साा फैलने से रोका था। यह सब बड़े-बड़े मिशनरियों की कथनी-करनी हैं। पर स्वतंत्र भारत में उन का काम और आसान हो गया! हमारे शासकों, राजनीतिक दलों ने उन्हें विशिष्ट आदर व सहूलियतें दीं। राजकीय सहयोग से वामपंथी इतिहासकारों ने ‘ब्राह्मणवाद’ को निशाना बनाया। विविध नेताओं ने वोट-बैंक बनाने के लिए ब्राह्मणों को बकरा बनाया। इस प्रकार, चौतरफा दुष्प्रचार से हिन्दूवादी संगठन भी स्वामी विवेकानन्द को भुला बैठे। जिन्होंने कहा था, ”ब्राह्मण ही हमारे पूर्वपुरुषों के आदर्श थे। हमारे सभी शास्त्रों में ब्राह्मण का आदर्श विशिष्ट रूप से प्रतिष्ठित है।
भारत के बड़े से बड़े राजाओं के वंशधर यह कहने की चेष्टा करते हैं कि हम अमुक कौपीनधारी, सर्वस्वत्यागी, वनवासी, फल-मूलाहारी और वेदपाठी ऋषि की संतान हैं।” यह महान विरासत भूल कर संघभाजपा नेताओं ने मंडल कमीशन (1979) बनाने, और फिर उस की रिपोर्ट स्वीकार करने (1990) में खुली मदद की। उस में मिशनरियों का ब्राह्मण-विरोधी दुष्प्रचार हू-ब-हू परोसा हुआ है। वही उस की अनुशंसाओं का मूल तर्क था! हमारे प्रधान मंत्री भी कह बैठे कि ब्राह्मणों को ‘सदियों किए गए उत्पीडऩ का पश्चाताप’ करना होगा। इस प्रकार, मिशनरियों का गढ़ा गया सफेद झूठ भारत सरकार का आधिकारिक सेयूलर, समाजवादी, राष्ट्रवादी सिद्धांत बन गया। ऐसी सफलता चर्च मिशनों को अंग्रेजी राज में भी नहीं मिली थी! अंग्रेजों ने मिशनरियों पर लगाम रखी थी, जबकि देसी शासकों ने उन्हें खुली छूट दे दी। नतीजन, पूरे भारत में चर्च-मिशनों की धोखे की टट्टी बेरोक-टोक फैल रही हैं। हिन्दू मंदिरों में जीसस-मेरी की फोटो लगा देना, हिन्दू डिजाइन का चर्च बनाकर भोले हिन्दुओं को फँसाकर ले जाना, दवाई से रोग ठीक कर जीसस की शक्ति कहना, हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान कर उन्हें ‘निर्बल’ बताना, कर्ज देकर या मिशन स्कूल में दाखिले के बदले, आदि कुटिल तरीकों से उन्हें हिन्दू समाज से तोड़ा जा रहा है। हमारे सााधारी सब जानते है। पर वे लोभ में अंधे हो कर, ‘अल्पसंयक’ विशेषाधिकार बढ़ाते जाकर वही डाल काटने में सहयोग दे रहे हैं जिस पर बैठे हैं।
शंकर शरण
( लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं ये उनके निजी विचार हैं)