खेद जताना आप क्या जानों साहब!

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अपने छात्र जीवन में स्पेलिंग की गलतियां के लिए ठुकने और कुटने वाले लोग जानते हैं कि स्पेलिंग किस बुरी शै का नाम है। जैसे कवि धूमिल ने कहा है कि लोहे का स्वाद घोड़े से पूछो, वैसे ही स्पेलिंग की तलवार के खौफ से एक पढ़ाई-लिखाई में ठस्स बच्चे और एक प्रूफरीडर से ज्यादा कौन ग्रस्त हो सकता है। एक त्रुटि के लिए खेद जताना क्या होता है, आप क्या जानो साहब। हालांकि दुनियादारों का यह मानना है कि दुनिया में त्रुटिहीन कुछ भी नहीं है। लेकिन शुद्धतावादियों को चिंता हमेशा यह रहती है कि एक स्पेलिंग मिस्टेक अर्थ का अनर्थ कर देती है। किसी उर्दूवाले से पूछो कि एक नुक्ते से कैसे खुदा जुदा हो जाता है। पर अब यह स्पेलिंग विमर्श सिर्फ स्कूल की कॉपियों या छपाई उद्योग तक ही महदूद नहीं रह गया है। जैसे धर्म सिर्फ व्यक्ति की आस्था या पूजास्थलों तक और जैसे खान-पान और पहनावा व्यक्ति की आदतों और पसंद तक ही सीमित नहीं रह गए हैं, वैसे ही स्पेलिंग का मसला भी सिर्फ छात्रों और प्रूफ रीडरों तक सीमित नहीं रह गया है।

जैसे धर्म और जाति का, खानपान और पहनावे का राजनीति से गठबंधन हो चुका है वैसे ही स्पेलिंग भी राजनीति से जुड़ने को उसी तरह बेताब है जैसे विपक्ष के सांसद और विधायक बीजेपी से जुडऩे को बेताब हैं। हालांकि स्पेलिंग का मसला इससे पहले ज्योतिषियों की कृपा से फिल्म जगत और उद्योग जगत से लेकर सत्ता उद्योग तक में उसी तरह सम्मान पा चुका है जैसे ये सांसद और विधायक अपनी मूल पार्टियों में सम्मान पा चुके हैं। कौन नहीं जानता कि ककक कहलाना सिर्फ शाहरुख खान की अभिनय यात्रा की मील का पत्थर ही नहीं है बल्कि फिल्म तथा टेलीविजन की जारीना मानी जानेवाली एक मोहतरमा की सफलता का राज भी माना जाता है। खैर, इधर जब दूसरी बार अपने नाम की स्पेलिंग बदलकर येदियुरप्पाजी चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, तब बीजेपी नेता विजय गोयलजी दिल्ली की स्पेलिंग बदलने की मांग कर रहे थे। विजय गोयलजी की इस मांग से यह नहीं मान लेना चाहिए कि बीजेपी या उसकी सरकारों ने शहरों के नाम बदलने की अपनी मुहिम बंद कर दी है और अब वे सिर्फ स्पेलिंग ही बदलेंगी।

शहरों के नाम बदलने का आखिरी प्रयास योगीजी ने हाल के चुनावों के दौरान हैदराबाद जाकर किया था, जब उन्होंने कहा था कि राज्य में अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो हम हैदराबाद का नाम बदल देंगे। देश की जनता ने केंद्र में तो उसे सत्ता दे दी। लेकिन तेलंगाना की जनता ने राज्य की सत्ता नहीं दी और इसीलिए हैदराबाद अभी भी हैदराबाद ही है। वैसे तो कुछ कर गुजरने पर आमादा लोग अक्सर यह दावा किया करते हैं कि अगर मैं ऐसा नहीं कर पाया तो मेरा नाम बदल देना। पर वास्तव में यह बीजेपी ही है, जिसने शेक्सपीयर की इस उक्ति को गलत साबित किया है कि नाम में क्या रखा है। शेक्सपीयर की उक्ति को गलत साबित कर एक तरह से उसने पूरे पश्चिम से बदला लिया है। क्योंकि आप तो जानते ही है कि पश्चिम की पूंजी की तो बेशक वह जबर्दस्त हामी है पर पश्चिम की सोच की वह कट्टर विरोधी है।

इसीलिए तो वह मैकाले और मार्क्स की विरोधी है। उसे तो संविधान तक कई बार इसलिए नागवार गुजरता है कि संघवाले उसे कभी पश्चिम की नकल मानते रहे थे। पर यह भी हो सकता है कि शेक्सपीयर की उक्ति को गलत साबित कर उसने अतीत की गलती ही सुधारी हो। हमारे यहां तो वैसे भी नाम का बड़ा महत्व है। इसीलिए तो राम नाम पर जोर रहता है। राम का नाम लिखे तो पत्थर भी तैरने लगते हैं। पर हमारे यहां नाम डूबता भी बड़ा जल्दी है। पुत्ररत्न पैदा न हो तो वंश का नाम डूब जाता है, कपूत पैदा हो जाए तो बाप का नाम डूब जाता है। वरना हमारे यहां संस्कार तो नाम रौशन करने के ही दिए जाते हैं। मेरा नाम करेगा रौशन, जग में मेरा राजदुलारा या पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा टाइप के गाने ऐसे ही थोड़े ही बन गए। शायद बीजेपी इन्हीं संस्कारों को आगे बढ़ाने या पल्लवित-पुष्पित करने के लिए जगहों और शहरों के नाम बदलती है ताकि शहर चाहे रौशन न हों पर बदले हुए नाम जरूर रौशन हों।

सहीराम
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं

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