खबर के नाम पर बस फूहड़ता

0
390

टीआरपी नाम पर टेलिविजऩ माध्यम के प्रभाव को खत्म किया। टीवी की खबरों का व्यापक और तुरंत असर होता था। चैनलों के मालिक और सरकार दोनों को पता था कि अगर इस माध्यम में पत्रकारिता की संस्था विकसित होगी तो खेल करना मुश्किल होगा। क्योंकि आप जो करते हैं वो दिख जाता है। जैसे ही रिपोर्टिंग का ढांचा चैनलों में जमने लगा वैसे ही ये ख़तरा मालिकों और सरकारों को दिखने लगा। इसलिए 2014 के कई साल पहले से ही न्यूज़ चैनलों से अच्छे रिपोर्टर निकाले जाने लगे थे। लोगों को ख़बर के नाम पर मनोरंजन दिखाया जाने लगा। ठीक है कि 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की आड़ में इन चैनलों ने यह काम किसी और तरीक़े से खुल कर किया और उन्हें मोदी के विराट समर्थक जगत का साथ मिला। मोदी समर्थकों को दिख रहा था कि ये पत्रकारिता नहीं है लेकिन वे अपने मोदी को देख ख़ुश हो रहे थे। जो दर्शक थे वो मोदी समर्थक बन रहे थे। इन चैनलों को सिर्फ मोदी के कारण झेल रहे थे। उसी के दंभ पर न्यूज़ चैनल वाले पत्रकारिता छोड़ मदारी का खेल दिखा रहे हैं।

वरना तमाम सरकारी और राजनीति के दबाव के बाद भी इन्हें पत्रकारिता करनी पड़ती। मेरी राय में इस खेल को सबने अपने तरीके से खेला है। कोई महात्मा नहीं है। नाम लेकर किसी को अलग करने का कोई फायदा नहीं। रिपोर्टरों और स्ट्रिंगरों का नेटवर्क ध्वस्त होते ही एंकर को लाया गया। संवाददाताओं की जगह एक एंकर होने लगा। एंकर के जरिए खेल शुरू हुआ। डिबेट शो लाया गया जिसे ख़बरों के विकल्प में खबर बनाकर पेश किया गया। सभी ने सूचना संग्रह का काम छोड़ दिया। आपसे कहा गया कि रेटिंग के लिए कर रहे हैं। कोई तो बताए कि रेटिंग से जो पैसा आया उससे कितने रिपोर्टर रखे गए। नए रिपोर्टरों की भर्ती बंद हो गई है। यह बेहद गंभीर मामला है। इसे एक चैनल के ख़िलाफ़ बाकी चैनलों की लामबंदी से न देखें। एक चैनल पर ऐसे हमला हो रहा है। आप किसी भी दल के समर्थक हों लेकिन भारत से कुछ तो प्यार करते होंगे। इसे लेकर कोई भ्रम न रखें कि चैनलों ने मिलकर इस देश के ख़ूबसूरत लोकतंत्र की हत्या की है। आज आपकी आवाज़ के लिए कोई जगह नहीं है।

इसलिए टीआरपी की बहस ने एक मौक़ा दिया है कि आप इन हत्यारों के तौर तरीक़ों को गहराई से समझें। बाकी मर्जी आपकी और देश आपका। मैं प्यार करता हूं, इसलिए बार बार कहता हूं। न्यूज़ चैनलों ने बहुत बर्बादी की है। इस महान मुल्क की जनता की पीठ पर छुरा भोंका है।यहां पर मुंबई पुलिस और बार्क को बताना चाहिए कि अर्णब के चैनल की रेटिंग मुंबई से कितनी मिलती है ? क्या ऐसा दूसरे शहरों में भी होता था? अकेले मुंबई की रेटिंग को माइनस कर देने से उन शहरों में क्या अर्णब की रेटिंग कम हुआ करती थी? टीआरपी की दुकान चलाने वाली संस्था को कुछ और तथ्य सामने रखने चाहिए? टीआरपी का एक फ्राड यह भी होता है कि आप मीटर किन घरों या इलाक़े में लगाते हैं। मान लें आप किसी कट्टर समर्थक के घर मीटर लगा दें। आप उसे पैसा दें या न दें वो देखेगा नहीं चैनल जिन पर सांप्रदायिक प्रसारण होता है। आज कल किसी व्यक्ति की सामाजिक प्रोफाइल जानने में दो मिनट लगता है। क्या यह मीटर दलित आदिवासी और मुस्लिम घरों में लगे हैं? क्या ये मीटर सिफऱ् भाजपा समर्थकों के घर लगे हैं?

हम कैसे मान लें कि टीआरपी का मीटर सिर्फ एक सामान्य दर्शक के घर में लगा है। सवाल ये कीजिए। रेटिंग का फ्राड केबल से होता है। मान लीजिए मुंबई की धारावी में 200 मीटर लगे हैं। वहाँ का केबल वाला प्राइम टाइम नहीं दिखाएगा तो मेरी रेटिंग कम होगी। यूपी के सबसे बड़े केबल वाले से कहा जाएगा कि नौ बजे बंद कर दो। मेरी रेटिंग जीरो हो जाएगी। इस खेल में प्रशासन भी शामिल होता है और केबल वाले भी। हर घर में मीटर नहीं होता है। जिन घरों में मीटर नहीं होता है उन घरों में आप मुझे दिन भर देखें रेटिंग नहीं आएगी। शायद पूरे देश में 50,000 से भी कम मीटर हैं। एक फ्राड ये भी है कि रातों रात चैनल को किसी दूसरे नंबर पर शिफ्ट कर दिया जाता है। आपको पता नहीं चलेगा कि चैनल कहां गया? कभी वीडियो तो कभी आवाज नहीं आएगी।

मेरे केस में इस राजनीतिक दबाव का नाम तकनीकी खराबी है। बिजऩेस का लोचा है! समझे । जब आप केबल ऑन करेंगे तो तीस सेकंड तक रिपब्लिक ही दिखेगा या इस तरह का कोई और चैनल। होटलों में भी किसी चैनल को फिक्स किया जाता है। इस खेल में कई चैनल होते हैं। इसलिए अर्णब पर सब हमला कर रहे हैं ताकि उनका खेल चलता रहे। नया खिलाड़ी चला जाए। टीआरपी मीटर का सिस्टम आज खऱाब नहीं हुआ। इस मसले को हड़बड़ में न समझें। ऐसा न हो कि टीआरपी कराने वाली संस्था बार्क अपनी साख बढ़ा ले कि उसी ने चोरी पकड़ी और पुलिस ने कार्रवाई की। यह चोरी न भी पकड़ी जाती तब भी इस सिस्टम में बहुत कमियां हैं। इस भ्रम में न रहें कि मीडिया में सब टीआरपी के अनावश्यक बोझ के कारण होता है। कुछ आवश्यक दबाव के कारण भी होता है।

रविश कुमार
(लेखक एनडीटीवी के संपादक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here