देश के दूसरे नंबर के कानूनी अधिकारी तुषार मेहता ने पलायन कर रहे मजदूरों के मसले पर सुप्रीम कोर्ट में पिछले हफ्ते सुनवाई के दौरान कई बेहद आपत्तिजनक बातें कहीं। उन्होंने कोरोना वायरस के संक्रमण और मजदूरों की समस्या उठाने और दिखाने वाले पत्रकारों को गिद्ध कहा। ऐसे जानकार और विशेषज्ञ, जिन्होंने इस वायरस के संकट और मजदूरों की समस्या की गंभीरता समझ कर देश में बड़ी मेडिकल और आर्थिक तबाही की संभावना जताई उनको ‘प्रोफेट ऑफ डूम्स डे’ यानी कयामत का पैगंबर कहा और सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने वाली उच्च अदालतों पर समानांतर सरकार चलाने का आरोप लगाया।
ये बातें कहते हुए देश के सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने न सिर्फ अदालत की अवमानना की, बल्कि मीडिया को अपमानित किया और लोगों की समझदारी के प्रति हिकारत का भाव प्रदर्शित किया। उनके ऐसा कहने की वजह और मकसद दोनों बहुत स्पष्ट हैं। वजह यह थी कि कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने और मजदूरों की रक्षा करने में पूरी तरह से विफल हुए उनके मालिक यानी सरकार को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। यह काम मीडिया के एक छोटे से समूह, कुछ गिने-चुने पत्रकारों और कुछ गिनती के बौद्धिकों द्वारा किया जा रहा है। तुषार मेहता को गुस्सा था कि आखिर ये लोग होते कौन हैं, जो उनके मालिक पर सवाल उठा रहे हैं। इस गुस्से का इजहार उन्होंने ऊपर बताए गए शब्दों में किया। उनके गुस्से के इजहार का मकसद भी साफ है। वे अपने मालिक को कठघरे में खड़ा करने वालों को डराने का प्रयास कर रहे थे।
ऐसा करते हुए वे सारी सीमा पार कर गए। उन्होंने इम्प्रोपराइटी यानी कदाचरण किया, अपने बौद्धिक दिवालिएपन का प्रदर्शन किया, अदालत की अवमानना की और अंततः संविधान का अपमान किया। कदाचरण इसलिए क्योंकि सॉलिसीटर जनरल का पद संवैधानिक नहीं होता है। वह जब अदालत में खड़ा होता है तो देश की तरफ से खड़ा नहीं होता, बल्कि सरकार की तरफ से खड़ा होता है। अंग्रेजी के अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने अपने संपादकीय में लिखा है कि अटॉर्नी जनरल का पद संवैधानिक होता है और सॉलिसीटर जनरल का पद वैधानिक होता है। वह सरकार की तरफ से अदालत में खड़ा होता है। तभी उन्होंने अदालत में जो बातें कहीं वह पद से से जुड़ी प्रोपराइटी का उल्लंघन है यानी इम्प्रोपराइटी है, कदाचरण है।
सॉलिसीटर जनरल का बौद्धिक दिवालियापन यह है कि उन्होंने पत्रकारों को गिद्ध बताने के लिए दक्षिण अफ्रीकी पत्रकार केविन कार्टर की सूडान में ली गई, जिस फोटो की कहानी सुनाई वह व्हाट्सएप पर प्रचारित होने वाली कहानी थी, जिसके ज्यादातर तथ्य गलत थे। सोचें, देश का दूसरे नंबर का कानूनी अधिकारी देश की सर्वोच्च अदालत के सामने खड़े होकर बिना तथ्य चेक किए व्हाट्सएप से उठाई गई कहानी सुना रहा था! उन्होंने कहा कि कार्टर ने सूडान में भूख से बेहाल एक ऐसे बच्चे की तस्वीर खींची, जिसकी ताक में एक गिद्ध वहां बैठा था। यह फोटो न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी और इसके लिए कार्टर को पुलित्जर पुरस्कार मिला। मेहता के मुताबिक बाद में एक पत्रकार ने कार्टर से पूछा कि जिसकी तस्वीर ली थी उस लड़के का क्या हआ तो कार्टर का जवाब था कि उन्हें नहीं पता क्योंकि वे फोटो लेकर चले गए थे। मेहता के मुताबिक पत्रकार ने कार्टर से यह भी पूछा कि वहां कितने गिद्ध थे तो उन्होंने कहा कि दो गिद्ध थे, जिसमें से एक के हाथ में कैमरा था। कुछ दिन बाद कार्टर ने आत्महत्या कर ली थी।
यह कहानी जस की तस पिछले कई बरसों से व्हाट्सएप पर वायरल हुई है। लेकिन कार्टर के ऐसे किसी इंटरव्यू की पुख्ता जानकारी नहीं है और हकीकत यह है कि कार्टर ने गिद्ध को खदेड़ कर वहां से भगाया और तब तक रूके जब तक मेडिकल टीम वहां नहीं पहुंची। उस समय वे उस बच्चे को नहीं छू सकते थे क्योंकि तब सूडान में जारी मेडिकल प्रोटोकॉल के मुताबिक बीमारी फैलने के डर से ऐसे लोगों को छूने पर पाबंदी थी। बहरहाल, वह बच्चा जीवित बच गया और 14 साल की उम्र तक जीवित रहा। कार्टर ने उस तस्वीर की वजह से आत्महत्या की, इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। उनकी आत्महत्या से कुछ दिन पहले ही उनके एक करीबी दोस्त की दक्षिण अफ्रीका में गोली लगने से मौत हुई थी और उस सहित कई कारणों से कार्टर अवसाद में थे।
अब रही बात गिद्ध या कयामत के पैगंबर वाली बात तो वह तथ्यों की रोशनी में लोगों को खुद तय करना है कि सरकार की कमियां बताने और खतरे के प्रति आगाह करने वाले गिद्ध या कयामत के पैगंबर हैं या देश की सर्वोच्च अदालत के सामने झूठ बोलने, उसे गुमराह करने और लाखों लोगों को सड़क पर चलने के लिए मजबूर छोड़ देने वाले यमदूत हैं! सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने 31 मार्च को सर्वोच्च अदालत में कहा कि देश के राजमार्गों पर कोई भी मजदूर अब पैदल नहीं चल रहा है। हकीकत यह है कि उस समय और उसके बाद कोई दो महीने तक लाखों की संख्या में मजदूर अपने छोटे-छोटे बच्चों, घर की महिलाओं और बुजुर्गों को लेकर सड़क पर पैदल चलते रहे। इस दौरान पांच सौ लोगों की जान गई। कोई सड़क पर भूख और गर्मी से बेहाल होकर मर गया तो कोई ट्रेन के नीचे आकर कट गए और अनेक लोगों को राजमार्ग पर बसों, ट्रकों ने कुचल दिया। क्या इन लोगों की मौत सरकार के उस कानूनी कारिंदे के सर नहीं होनी चाहिए, जिसने अदालत से कहा कि कोई भी मजदूर सड़क पर नहीं है? सोचें, सड़क पर पैदल चल रहे मजदूरों की पीड़ा, तकलीफ और मुश्किलों को सामने लाने वाले गिद्ध हैं या उन्हें सड़क पर मरने के लिए छोड़ देने वाले यमदूत हैं? मजदूरों की पीड़ा बताए जाने का नतीजा ही था, जो सरकार को मजबूर होकर ट्रेनें चलानी पड़ीं और बाद में अदालत ने भी इस बारे में जरूरी निर्देश दिए। हालांकि यह अलग बात है कि मजबूरी में चलाई गई ट्रेनों में नौ से लेकर 30 मई तक 80 लोगों की मौत हो चुकी है।
सॉलिसीटर जनरल ने अपने या अपने मालिक की ताकत के अहंकार में अदालत की अवमानना भी की। उन्होंने अदालतों पर समानांतर सरकार चलाने का आरोप लगाया। सर्वोच्च अदालत को ललकारते हुए कहा कि कयामत के पैगंबर अदालतों को भी तभी तटस्थ मानते हैं, जब वे सरकार की आलोचना करती हैं। ये बातें कैसी खतरनाक प्रवृत्ति की तरफ इशारा कर रही हैं? क्या वे सुप्रीम कोर्ट को देश की उच्च अदालतों के खिलाफ नहीं खड़ा कर रहे थे और साथ साथ सर्वोच्च अदालत को देश के पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और विपक्ष के खिलाफ भी भड़का रहे थे? ऐसे अभूतपूर्व संकट के समय में कोई पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता या विपक्ष का नेता सरकार के कामकाज पर सवाल उठाता है तो उसे सुनने और समस्या का समाधान करने की बजाय उसकी आलोचना क्या लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर नहीं करेगी?
अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)