कॉर्पारेट से बढ़ता कार्बन उत्सर्जन

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अब तक मैं यह तर्क दे चुका हूं कि अक्षय ऊर्जा और इलेक्ट्रिक गाड़ियों के जरिए कार्बन उत्सर्जन कम करने के प्रयासों का सतत विकास और सभी के लिए आधुनिक ऊर्जा के लक्ष्य पर काफी कम असर होगा। फिर भी कई भारतीय कंपनियां कुल कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने (नेट जीरो) के लिए प्रतिबद्ध हैं।

इसमें रिलायंस, महिंद्रा, जेएसडब्ल्यू, अंबुजा जैसी विनिर्माण कंपनियां, टीसीएस, विप्रो, इंफोसिस और एचडीएफसी बैंक जैसे सर्विस सेक्टर के दिग्गज शामिल हैं। वे इसे अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने, ऊर्जा दक्षता बढ़ाने, हरित गतिशीलता, नियोजित वृक्षारोपण तथा रिसायकिलिंग आदि उपायों से हासिल करने की बात करते हैं। हालांकि, कॉर्पोरेट सेक्टर भारत के कार्बन उत्सर्जन पर बहुत कम असर डाल सकता है।

भारत के 25% से भी कम उत्सर्जन के लिए सीधे निजी क्षेत्र जिम्मेदार हैं। इसमें अधिकांश विनिर्माण और औद्योगिक प्रक्रियाओं से होता है। इसे कम करने के लिए बड़े उद्योगों में निवेश की क्षमता होगी। लेकिन करीब 45% विनिर्माण आउटपुट देने वाले एमएमएई उद्योगों के लिए तो उत्सर्जन कम करना प्राथमिकता भी नहीं होगा। परिवहन एक अन्य महत्वपूर्ण घटक है।

यह देखते हुए कि लॉजिस्टिक की ऊंची लागत भारतीय विनिर्माण की प्रतिस्पर्धात्मकता में बाधा है, परिवहन में उच्च उत्सर्जन दक्षता पाने की अतिरिक्त लागत व्यवसायों को नुकसान पहुंचाएगी। सेवा उद्योगों के लिए, परिवहन प्रत्यक्ष उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत होगा। कम कॉन्फ्रेंस, ज्यादा वीडियो मीटिंग, मेट्रो स्टेशनों के पास ऑफिस आदि घोषणाओं में अच्छे लगते हैं, लेकिन इनका राष्ट्रीय स्तर पर असर नहीं होगा।

भारत का करीब 50% उत्सर्जन बिजली उत्पादन से आता है। नेट जीरो के लिए प्रत्येक कंपनी को कम ऊर्जा इस्तेमाल करनी होगा और ज्यादा हरित ऊर्जा खरीदनी होगी। इसे नेट जीरो की गणना में स्कोप-2 उत्सर्जन कहते हैं। (स्कोप-1 वे उत्सर्जन हैं, जो सीधे बिजनेस गतिविधि से आते हैं)

उच्च टैरिफ पहले ही बिजली खपत में दक्षता को प्रोत्साहित करते हैं, इसलिए मुझे नेट जीरो प्रतिबद्धताओं से बड़ा प्रभाव पड़ने की उम्मीद नहीं है। सार्वजनिक कंपनियों से मिलने वाली 40% बिजली की खपत उद्योगों द्वारा की जाती है। कई राज्यों में, उद्योगों के लिए बिजली शुल्क, आपूर्ति की लागत से 25% अधिक है। बिजली की खपत में वाणिज्यिक उपभोक्ताओं की हिस्सेदारी 10% से कम है, जबकि लागत से 50% अधिक टैरिफ हैं।

ऐसा इसलिए है क्योंकि टैरिफ को कृषि और घरेलू टैरिफ को आंशिक सब्सिडी देने तैयार किया गया है। कई उद्योगों को खुद ही बिजली उत्पादन करना ज्यादा सस्ता लगता है। छोटे उद्योगों और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में बिजली चोरी भी आम है। इसलिए कॉर्पोरेट हेडक्वार्टरों, बैंक और अन्य सर्विस सेक्टर कंपनियों द्वारा एनर्जी-एफिशिएंट बिल्डिंग पर निवेश का असर काफी कम होगा।

जहां तक हरित ऊर्जा खरीदने और सौर-पैनल से बिजली उत्पादन की बात है तो जब तक बिजली स्टोर करना सस्ता नहीं होता, ज्यादा हरित ऊर्जा का अर्थ बिजली व्यवस्था की ज्यादा लागत ही होगा। लागत का भार उपभोक्ता और करदाता पर ही आएगा। तो क्या नेट जीरो का कोई उद्देश्य नहीं है? कुछ खास नहीं।

यह अस्वस्थ व्यक्ति की योजना में ग्रीन-टी की तरह है। ग्रीन-टी मददगार है लेकिन धूम्रपान छोड़ना और नियमित व्यायाम भी जरूरी है। ये ज्यादा असरदार कार्य सरकार के जिम्मे हैं। इसके अतिरिक्त बिजली उत्पादन के अलावा 25% उत्सर्जन कृषि क्षेत्र, भूमि उपयोग परिवर्तन और वानिकी तथा अपशिष्ट प्रबंधन से होता है।

नेट जीरो की कहानी पूरी करने के लिए कुछ महत्वाकांक्षी कॉर्पोरेशन स्कोप-3 उत्सर्जन शामिल कर सकते हैं। जो बिजनेस की सप्लाई चेन और वितरण चेन से संबंधित हैं। एमएसएमई और छोटे व्यवसायों में लागत का भार बढ़ने से अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मकता पर बुरा असर पड़ेगा।

मनीष अग्रवाल
( लेखक इंफ्रास्ट्रक्चर विशेषज्ञ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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