“कहीं कोई और बात तो नहीं थी, कभी किसी गाड़ी से एक्सीडैन्ट हुआ हो?” बृजमोहन ने शंकित आवाज में पूछा।
“लगता तो नहीं।”
“डॉक्टर साहब, क्या आपने पूछा था कि लाने वाले कौन थे?” बृजमोहन ने डॉक्टर राधेश्याम से पूछा। बृजमोहन अभी शंकित थे। कभी कोई यूं ही मार-पीटकर डाल गया हो और कह दिया कि फिसल गया था।
डॉक्टर साहब ने बताया कि हम ऐसे केस में हमेशा लाने वाले का नाम-पता लिखते हैं। उन्होंने फाइल देखकर बताया कोई श्री हेमन्त हैं, 100, राम प्रसाद बिस्मिल मार्ग पर रहते हैं। वो ही सादी दवाएं भी देकर गए हैं। कह रहे थे कि “बहुत आवश्यक कार्य से जाना था इसिएल रुक नहीं सकते थे। वैसे कह गए हैं कि शाम को फिर आएंगे।”
बृजमोहन अब भी शंकित थे कि कहीं वह आदमी ही एक्सीडैन्ट करके खुद ही न लाया हो। खैर, अगर वह एक्सीडैन्ट करके खुद ही लाया हो तो भी अच्छा आदमी है वरना भाग ही गया होता तो क्या कर लेते हम। कम से कम उसे इतनी समझ तो है कि एक्सीडैन्ट हो जाए तो अपनी जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहिये और चोट खाये व्यक्ति को अस्पताल ले जाना चाहिए। वह आदमी है तो भला, वरना आज कौन जिम्मेदारी समझता है। फिर कोई जिम्मेदारी समझे भी तो जनता की प्रतिक्रिया कितनी गन्दी होती है। उन्होंने सोचा कि देखो, मैं तो उसको धन्यवाद देने की बात सोच रहा हूं पर कोई और होता तो सोचता कि मलने दो उसे। पुलिस मे दे दूंगा। क्या कोई जान-बूझ कर एक्सीडैन्ट करता है? इसीलिए तो लोग अपनी जम्मेदारी पूरी नहीं करते। एक तो भलाई करो, दूसरे मरो। न जाने कितने विचारों का ताना-बाना बुन गया बृजमोहन के मस्तिष्क में।
थोड़ी देर में जैसे ही विचारों का तूफान थमा, उन्होनें डॉक्टर साहब से पूछा “आपको मेरा पता कैसे मालूम हुआ?”
डॉक्टर साहब ने कहा, “अरे, उसकी जेब में स्कूल का परिचय पत्र था न।”
खैर, बात चली, इलाज चला। शाम होने को आई और शाम हो गई। अब बिट्टू को थोड़ा-थोड़ा होश आ गया था और उसे प्रथम तल पर एक कमरे में स्थानान्तरित कर दिया गया था। पन्टू और बृजमोहन बाहर गैलरी में खड़े नीचे देख रहे थे। साथ में बिट्टू के दोस्त भी खड़े थे। वे बता रहे थे जब बिट्टू जन्म दिन की पार्टी में नहीं पहुंचा तो फोन किया। बृजमोहन के घर पर तो फोन था नहीं पर पड़ोस में प्रेम प्रकाश जी के घर पर था। वे वृजमोहन के अच्छे दोस्त थे। भले से आदमी थे। प्रेम प्रकाश जी के घर से ही बिट्टू के दोस्तों को बात का पता चला और कुछ दोस्त अस्पताल भी आ पहुंचे।
सुलेखा तो बस बिट्टू के पास ही बैठी थी। खाया-पीया कुछ भी नहीं। वह तो एक पल भी बिट्टू को छोड़ नहीं सकती थी। आखिर मां का दिल जो ठहरा। कैसी विडम्बना है कि जिन बच्चों के लिए माता-पिता अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं वे ही बड़े होकर मां-बाप की बोतों की खुली अवहेलना करने ले नहीं चूकते।
इतने में ही हेमन्त आ गए। बृजमोहन से मुलाकात की। बातों-बातों में जान-पहचान निकल आई। देखो कैसा संयोग है! अभी कोई दस दिन पहले ही प्रेम प्रकाश जी की लड़की की शादी में मिले थे। हेमन्त ने सारी बातें बृजमोहन को बताई। उनके सामने ही तो सारी घटना घटी और वे ही उसे लेकर आए थे। जरा सुनें, क्या बात हो रही है, पिन्टू भी कान लगाए सुन रहा है।
“केले का छिलका!” बृजमोहन ने उत्सुकता से कहा।
“जी हां… केले का छिलका। बस से उरते ही उसका पैर केले के छिलके पर पड़ा और वह फिसल गया। यह तो ईश्वर की कृपा थी कि बस पूरी तरह रुकी हुई थी। अगर जरा भी जल रही होती तो इसका तो सिर ही कुचल जता।”
” आप तो देवता समान हैं हेमन्त भाई। आपने कितनी भाग-दौड़ की इसके लिए। मैं तो सोच रहा था कि कहीं आपसे ही तो एक्सीडैन्ट…” कहते-कहते वृजमोहन थोड़ा हंस पड़े।
हेमन्त ही मुस्कुराए और बोले “पर देखिये, कितने नासमझ हैं लोग। केला खाया और छिलका यू हीं फेंक दिया। ये केले का छिलका किसी की जान भी ले सकता है, यह नहीं सोचता। अगर कहीं एक नाले में, कूड़ेदान में, किनारे पर या कहीं भी उचित स्थान पर डाल दें तो क्या हर्ज हो। सुरक्षा ही सुरक्षा और सफाई की सफाई।”
बात चल ही रही थी कि पिन्टू दौड़ पड़ा। जीने से भू-तल की ओर भागा जा रहा था। बृजमोहन तो पहले ही परेशान थे कि बिट्टू के चोट लगी हुई है और अभी होश में भी नहीं आया है कि पिन्टू भी दौड़-भाग करने लगा। कहीं यह भी गिर गया तो!
वे भी चिल्लाकर उसके पीछे तेजी से चले, “अरे कहां जा रहा है पिन्टू?”
हमेन्त व बिट्टू के दोस्त भी तीव्र गति से जीने से भू-तल की ओर दौड़े। बृजमोहन परेशान थे कि आखिर यह भागकर जा कहां रहा है। नीचे पहुंचे ही थे कि उन्होंने देखा पिन्टू ने रास्ते में पड़ी कोई चीज हाथ में उठा ली।
“अरे क्या गन्दगी उठा रहा है पिन्टू?” बृजमोहन थोड़ा धमकाते हुए बोले।
पिन्टू ने दूर से आवाज दिया “कुछ नहीं पापा, केले का छिलका है।”
अभी अनायास बोल उठे “केले का छिलका….!”
साभार
उन्नति के पथ पर (कहानी संग्रह)
लेखक
डॉ. अतुल कृष्ण