केजरी के सुशासन की परीक्षा!

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दिल्ली का चुनाव वैसे तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के चेहरे पर लड़ा जाएगा। उन्हें बिना चेहरे के कांग्रेस चुनौती दे रही है और भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे से चुनौती दे रही है। सोचें, एक तरफ अरविंद केजरीवाल का चेहरा और दूसरी ओर नरेंद्र मोदी का चेहरा। इससे पहले भी इन दोनों चेहरों का मुकाबला एक बार हो चुका है, जब केजरीवाल लोकसभा का चुनाव लड़ने वाराणसी पहुंचे थे। वहां कांग्रेस, सपा और बसपा तीनों चुनाव लड़ रहे थे इसके बावजूद आम लोगों ने नरेंद्र मोदी के मुकाबले केजरीवाल को मुख्य विपक्षी उम्मीदवार माना था। वह लड़ाई बड़े अंतर से नरेंद्र मोदी जीते थे।

दूसरी बार दिल्ली में नरेंद्र मोदी ने जनवरी 2015 में अरविंद केजरीवाल को चुनौती दी। पर तब उनके और केजरीवाल के बीच एक बफर था, किरण बेदी के रूप में। पार्टी उनको मुख्यमंत्री का दावेदार बना कर चुनाव लड़ रही थी। पर इस बार केजरीवाल के मुकाबले सीधे नरेंद्र मोदी का चेहरा है। सो, इस बार चुनाव का समूचा परिदृश्य बदला हुआ है। एक तरफ भाजपा चाह रही है कि दिल्ली का चुनाव किसी तरह से राष्ट्रीय मुद्दों पर और नरेंद्र मोदी के चेहरे पर शिफ्ट हो जाए तो दूसरी ओर आम आदमी पार्टी का प्रयास है कि चुनाव किसी तरह के दिल्ली के स्थानीय मुद्दों और अरविंद केजरीवाल के चेहरे पर ही हो। तभी भाजपा मोदी के चेहरे पर वोट मांग रही है और केजरीवाल कह रहे हैं कि वे काम पर वोट मांगेंगे और उनकी पार्टी कह रही है कि भाजपा के पास मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं है।

अंततः यह प्रचार की कोर थीम होगी। आखिर सबको पता है कि भाजपा चुनाव जीती तो नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री नहीं बनने वाले हैं। इसलिए उनके प्रति तमाम सद्भाव के बावजूद एक बड़ा मतदाता समूह ऐसा है, जो केजरीवाल को वोट करेगा। केजरीवाल की पार्टी अपने कथित सर्वेक्षणों के जरिए बता रही है कि भाजपा के पारंपरिक समर्थकों में से भी 20 फीसदी से कुछ ज्यादा लोग इस बार आप को वोट करेंगे। जिन्होंने लोकसभा में भाजपा को वोट किया है उनका बड़ा हिस्सा विधानसभा में आप को वोट करेगा। ऐसी परिघटना कोई नई नहीं है। दिल्ली में 2014-15 में ऐसा हो चुका है। बिहार में 2014-15 में ऐसा हुआ है और हाल ही में झारखंड में भी ऐसा देखने को मिला।

इसका मतलब है कि मतदाता राज्य और केंद्र के चुनाव को अलग नजरिए से देख रहा है। वह एक लहर में बहने की बजाय राष्ट्रीय और प्रादेशिक मुद्दों और अपने हितों के नजरिए से अलग अलग लहर पैदा कर रहा है। तभी आप को भरोसा है कि विधानसभा चुनाव लोकसभा की लहर पर नहीं होगा। पिछली बार भी ऐसा हुआ था। पर इस बार और पिछली बार में एक बुनियादी फर्क है। पिछली बार लोगों ने बतौर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कामकाज नहीं देखा था। इस बार उन्होंने पांच साल उनकी सरकार का काम देखा है। इसलिए उनका मतदान का फैसला निश्चित रूप से केजरीवाल के कामकाज से प्रभावित होगा।

तभी यह कहा जा सकता है कि 2013 और 2015 के दोनों विधानसभा चुनाव अगर अरविंद केजरीवाल के चेहरे और उनकी सामाजिक कार्यकर्ता वाली छवि पर हुए थे तो इस बार का चुनाव उनके कामकाज पर होगा। वे अपने काम पर ही वोट मांग रहे हैं और उनको अपने काम पर इतना भरोसा है कि उन्होंने दिल्ली के लोगों से कहा है कि उनको लग रहा है कि उन्होंने काम किया तो वोट दें और लगता है कि काम नहीं किया है तो वोट नहीं दें। यह बात कहने की हिम्मत कोई भी मुख्यमंत्री नहीं करता है। जिन्होंने काम किया होता है वे भी चुनाव के वक्त कुछ लुभावने वादों और भावनात्मक मुद्दों पर वोट मांगते हैं। ध्यान रहे पांच साल तक काम करने का दावा करने के बावजूद भाजपा ने लोकसभा चुनाव में बालाकोट एयर स्ट्राइक और पुलवामा के शहीदों के नाम पर वोट मांग था।

तभी केजरीवाल से ज्यादा इस बार दिल्ली के चुनाव में इस बात की परीक्षा होनी है कि लोग काम के आधार पर वोट करते हैं या नहीं। यह परीक्षा केजरीवाल से ज्यादा वास्तविक सुशासन की है। यह भारत में आमतौर पर सुनने को मिलता है कि यहां लोग काम के आधार पर वोट नहीं करते हैं। झारखंड के इस बार के चुनाव में ही सुनने को मिला कि अगर काम के आधार पर वोट हो रहे होते तो चंद्रबाबू नायडू चुनाव नहीं हारते। भाजपा के नेता अपने लिए भी कह रहे हैं कि अगर झारखंड में काम पर वोट होता तो भाजपा नहीं हारती। वह इसलिए हारी क्योंकि विपक्ष भावनात्मक मुद्दों के आधार पर आदिवासी, मुस्लिम और ईसाई का एक मजबूत गठजोड़ बनाने में कामयाब रहा।

यह बात क्या दिल्ली के बारे में भी कही जा सकती है? ध्यान रहे दिल्ली में सब मानते हैं कि शीला दीक्षित से बेहतर काम कोई नहीं कर सकता है। फिर भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की हवा में शीला दीक्षित खुद भी हारीं और कांग्रेस भी बुरी तरह से हार कर सत्ता से बाहर हुई। सो, यह देखना दिलचस्प होगा कि अरविंद केजरीवाल का काम और सुशासन का दांव कितना कारगर होता है और उसके मुकाबले दिल्ली में पिछले कुछ समय से किसी न किसी मसले पर लगातार हो रही हिंसा और उसके आधार पर बुने जा रहे चुनावी तानेबाने में से किसे कामयाबी मिलती है। केजरीवाल ने पांच साल तक काम भी किया, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में दिल्ली सरकार का काम मिसाल है। साथ ही पानी, बिजली, स्कूलों की फीस, बसों के किराए आदि की महंगाई भी काबू में रखी है। इसके अलावा आगे के लिए लोक लुभावन वादे भी किए हैं। इस लिहाज से यह एक नए मॉडल की राजनीति को स्वीकार करने या खारिज करने का चुनाव भी साबित होगा।

तन्मय कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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