भारत के विपक्षी दलों की दुर्दशा देखने लायक है। चुनाव के पहले वे कोई संयुक्त मोर्चा खड़ा नहीं कर सके और चुनाव के बाद चार दिन निकल गए लेकिन अभी तक वे हवा में लट्ठ घुमा रहे हैं। वे भाजपा की तथाकथित ज़्यादतियों के खिलाफ एक होकर राष्ट्रपति और चुनाव आयोग के दरवाजे तो खटखटा सकते हैं लेकिन विपक्ष का कोई गठबंधन नहीं बना सकते। भारत के विपक्षियों के पास न तो कोई वैकल्पिक नेता है और न नीति है। विपक्ष का एक दल भी ऐसा नहीं है, जो दावा कर सके कि उसे सबसे ज्यादा सीटें मिलेंगी, भाजपा से भी ज्यादा।
तो फिर घमंड किस बात का है? तब फिर कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में सपा और बसपा से हाथ क्यों नहीं मिलाया? दिल्ली में ‘आप’ से दूरी क्यों बना ली? दक्षिण भारत के प्रांतों में भी वह अकेली ही अपनी ढपली क्यों पीट रही है? तेलुगु देशम के चंद्रबाबू नायडू ही सारे विपक्षियों को एक करने में क्यो जुट हुए हैं? क्या वे अकेले इन सारे मेंढकों को एक पलड़े में बिठा सकेंगे? ऐसा कौन सा सूत्र है, जिसमें इन सबको बांधकर एक किया जा सकें?
आजकल विचारधारा नामका सूत्र तो कोई रह ही नहीं गया है। अब बस एक ही सूत्र रह गया है। वह है, सत्ता-सूत्र ! इस सत्ता-सूत्र में भी बड़ा पेंच है। हर विपक्षी पार्टी का नेता अपने आप को प्रधानमंत्री बना देखना चाहता है। वरना क्या वजह है कि सारे विरोधी दल चुनाव के पहले एक नहीं हो पाए? अखिलेश और मायावती की तरह यदि सब एक हो जाते तो उनके पास देश के 69 प्रतिशत वोट होते। 2014 में भाजपा को मिले 31 प्रतिशत वोट से भी दुगुने लेकिन अब यदि एग्जिट पोल सही निकल गए तो विरोधी दलों की नाक कटे बिना नहीं रहेगी। वे सत्तारुढ़ भाजपा के तलुवे चाटने पर उतारु हो जाएंगे। वे सत्ता के लिए लार टपकाने और दुम हिलाने लगेंगे। वे लोकतंत्र के इस आधारभूत सिद्धांत को भूल जाएंगे कि विपक्ष जितना मजबूत होगा, सत्तापक्ष उतना ही पटरी पर चलेगा।
आज अमेरिका के अक्खड़ राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे मनमानी क्यों नहीं कर पा रहे हैं? क्योंकि वहां उनकी अपनी पार्टियों और विपक्षी दलों में भी काफी दम-खम है। यदि एग्जिट पोल सही निकले और मान लें कि 350 सांसदों वाली मोदी सरकार बन भी जाए तो भी क्या? यदि शेष 200 सांसद यदि एक हों तो वे सरकार की नाक में दम कर सकते हैं। भारतीय तंत्र को जिंदा लोकतंत्र बना सकते हैं। लेकिन विपक्ष की आज जो मनस्थिति है, वह इतनी डांवाडोल है कि वह किसी तरह यदि सरकार बना भी लेगा तो उसे साल-दो साल से ज्यादा नहीं चला पाएगा।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…