सोनिया गांधी फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बन गई हैं। सवाल है कि इससे कांग्रेस संगठन, कामकाज और नीति-रणनीति में क्या गुणात्मक परिवर्तन आएगा? राहुल जब अध्यक्ष नहीं थे तब उपाध्यक्ष और उससे पहले महासचिव थे। इन दोनों पदों पर रहते हुए भी वे कांग्रेस में एक पावर सेंटर थे और संगठन से लेकर रणनीति बनाने तक में उनकी अहम भूमिका होती थी। सोनिया गांधी अध्यक्ष रहते हुए निष्क्रिय हो गई थीं और उनकी जगह कांग्रेस का चेहरा राहुल गांधी ही थे। पर तब सोनिया गांधी की टीम से राहुल को काम कराना था। इस बार सोनिया ऐसी टीम बनाएंगी, जो राहुल की होगी और राहुल के लिए काम करेगी। इसके अलावा कोई गुणात्मक परिवर्तन होने के आसार नहीं हैं।
गुणात्मक परिवर्तन से मतलब नीतिगत बदलाव से है। कांग्रेस को नीति और रणनीति के स्तर पर अपने को बदलना है। उसके पास नेता की कमी नहीं है। सत्ता में भले पांच साल से भाजपा है और ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकार है पर भाजपा के मुकाबले ज्यादा लोकप्रिय और बड़े नेता कांग्रेस के पास हैं। मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस के अलावा भाजपा के दूसरे या तीसरे नेता का नाम याद करने के लिए दिमाग पर जोर देना होता है पर कांग्रेस के आधा दर्जन नेता ऐसे हैं, जिनको देश भर के लोग जानते हैं। यहीं हाल कर्नाटक या हरियाणा या मध्य प्रदेश, राजस्थान में भी है। हर जगह कांग्रेस के पास ज्यादा बड़े, अखिल भारतीय लोकप्रियता वाले और समझदार नेता हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह या राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी के मुकाबले ढेर सारे जाने पहचाने चेहरे कांग्रेस के पास हैं।
असल में यह समझने की जरूरत है कि राजनीति हमेशा लोकप्रिय और चमत्कारिक नेताओं के चेहरे से नहीं चलती है। सोचें 2011 से पहले क्या कोई अरविंद केजरीवाल का नाम जानता था? पर पिछले एक दशक में उनसे चमत्कारिक राजनीतिक चेहरा कोई दूसरा नहीं निकला। कहने का मतलब यह है कि कांग्रेस के पास भाजपा के मुकाबले ज्यादा बड़े नेता हैं पर अगर लोकप्रिय चेहरा नहीं भी हों और नीति-रणनीति हो तो पार्टी बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। तभी कांग्रेस को इस समय नेता से ज्यादा नीति, रणनीति, सिद्धांत की जरूरत है।
कांग्रेस के सामने मुश्किल यह है कि जिस सिद्धांत पर वह राजनीति करती थी उसे नरेंद्र मोदी ने अपना लिया है। कांग्रेस के पास राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत थी, जिसके दम पर वह नंबर एक राष्ट्रवादी पार्टी थी पहले भाजपा ने उसे हथिया लिया। इसके बाद नेहरूवादी समाजवाद और इंदिरा गांधी की गरीब कल्याण की नीति को भी अपना लिया। सो, कांग्रेस के पास अब न तो राष्ट्रवाद है और न समाजवाद है। तभी उसके सामने सबसे बड़े चुनौती एक वैकल्पिक वैचारिक विमर्श खड़ा करने की है। ऐसा वैचारिक विमर्श जो भाजपा के बनाए राजनीतिक नैरेटिव को चुनौती दे सके। कांग्रेस को अक्सर एक सलाह ब्रिटेन के लेबर लीडर टोनी ब्लेयर से सीख लेने की दी जाती है। एक जमाने में मारग्रेट थैचर की लगातार जीत से लेबर पार्टी पस्त होकर हाशिए में पड़ी थी। तब टोनी ब्लेयर ने नए सिद्धांत गढ़े, न्यू लेबर का नारा दिया और इंगलैंड के लोगों को अपने साथ जोड़ा। कांग्रेस को भी इसी तरह न्यू कांग्रेस की परिकल्पना करनी होगी।
हकीकत है कि अभी कांग्रेस वैचारिक स्तर पर बुरी तरह से बिखरी हुई पार्टी है। बुनियादी बातों पर भी पार्टी की लाइन तय नहीं हो पाती है। 2014 में चुनाव हारने के बाद एके एंटनी कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों से छुटकारा पाने के लिए कांग्रेस नेता मंदिरों में तो जाने लगे पर वह धर्म के दिखावे का ऐसा भोंड़ा प्रदर्शन था कि उन्हें उलटे नुकसान हो गया। सो, कांग्रेस को वापस अपने उदार लोकतांत्रिक विचारों की जड़ तक लौटना चाहिए। भारत की धार्मिक विविधता व सांस्कृतिक बहुलता की वास्तविकता को सामने रख कर ऐसी नीति बनानी चाहिए, जो बेशक पहली नजर में बहुत लोक लुभावन नहीं हो पर लंबे समय में देश की एकता, अखंडता व विकास की तस्वीर पेश करने वाली हो। तुष्टिकरण के आरोपों से बचने के लिए या देशद्रोही कहे जाने की चिंता में कांग्रेस इन दिनों बेहद जरूरी मुद्दों पर भी या तो चुप रह जा रही है या लोकप्रिय धारणा के साथ बह जा रही है। इसे छोड़ना होगा और गलत को गलत कहने की हिम्मत लानी होगी। तभी वह किसी भी चेहरे के नेतृत्व में वापसी करने में सक्षम बन पाएगी।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं