कांग्रेस का दांव तो अच्छा है लेकिन…

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कह सकते हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री पद से विजय रुपाणी को हटा कर भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस को हौसला दिया कि वह भी पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह को हटा दे। रुपाणी 2017 के चुनाव के बाद जब दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तब से उनका करीब चार साल का कार्यकाल ज्यादा सफल नहीं रहा। वे न तो अपने नेतृत्व से पार्टी को राजनीतिक फायदा पहुंचा पाए और न गवर्नेंस के मामले में खुद को साबित कर पाए। भाजपा को पता है कि बचे हुए एक साल में कोई भी मुख्यमंत्री शासन-प्रशासन के स्तर पर कोई चमत्कार नहीं कर पाएगा। इसलिए पार्टी ने पटेल मुख्यमंत्री बना कर अस्मिता की राजनीति की है। पंजाब का घटनाक्रम भी इससे अलग नहीं है। वहां भी कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने अपने दूसरे कार्यकाल के साढ़े चार साल में कांग्रेस को बड़ा राजनीतिक नुकसान पहुंचाया। गुजरात और पंजाब के घटनाक्रम में फर्क सिर्फ इतना है कि भाजपा आलाकमान बहुत मजबूत है और रुपाणी की बड़ी राजनीतिक हैसियत नहीं थी। इसके उलट कांग्रेस में आलाकमान बहुत कमजोर है और कैप्टेन की राजनीतिक हैसियत बहुत बड़ी थी। इस लिहाज से कह सकते हैं कि रुपाणी को हटाने के मुकाबले कैप्टेन को हटाना बहुत साहस और जोखिम का काम है। इससे राहुल गांधी के नेतृत्व की धाक भी बनेगी।

बहरहाल, अब सवाल है कि आगे क्या? कांग्रेस ने एंटी इन्कंबैंसी कम करने का वहीं दांव चला है, जो भाजपा ने उत्तराखंड या गुजरात में चला। सरकार का चेहरा रहे मुख्यमंत्री को हटा कर पार्टियां सोचती हैं कि पिछले सारे दाग धुल गए और अब नया नेता बिल्कुल क्लीन स्लेट पर शुरुआत करेगा। हालांकि ऐसा होता नहीं है। पार्टियों को अपने हर नेता के किए का हिसाब जनता के सामने देना होता है। फिर भी नेता बदल कर मतदाताओं की आंख में धूल झोंकने का प्रयास होता रहता है। तभी सवाल है कि क्या पिछले साढ़े चार साल के कार्यकाल में कैप्टेन जो नहीं कर पाए वह कांग्रेस का नया नेता कर दिखाएगा? अकाली दल के 10 साल के राज के बाद 2017 में कैप्टेन की कमान में कांग्रेस को सत्ता मिली तो उसमें अकाली-भाजपा सरकार की विफलता के साथ साथ सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरू ग्रंथ साहिब की बेअदबी के मामले का भी हाथ था। कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया था और ग्रंथ साहिब की बेअदबी करने वालों को सजा दिलाने का वादा किया था। असल में अकाली-भाजपा शासन के समय एक जून 2015 को बरगाडी से पांच किलोमीटर गांव बुर्ज जवाहर सिंह वाला स्थित गुरुद्वारा साहिब से ग्रंथ साहिब के पवित्र स्वरूप चोरी हो गए थे।

इसके बाद 25 सितंबर को बरगाडी गुरुद्वारा साहिब के पास हाथ से लिखे दो पोस्टर मिले थे, जिनमें अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया गया था और यह दावा किया गया था कि पवित्र ग्रंथ की चोरी में डेरा का हाथ है। इसमें सिख संगठनों को खुली चुनौती भी दी गई थी। इसके बाद 12 अक्टूबर को वहीं गुरुद्वारा साहिब के पास पवित्र ग्रंथ के फटे हुए पन्ने बिखरे मिले थे। इसे लेकर बरगाडी और कोटकपुरा सहित कई जगह बड़ा प्रदर्शन हुआ था। प्रदर्शन के दौरान 14 अक्टूबर को पुलिस ने फायरिंग की, जिसमें दो लोग मारे गए थे। कैप्टेन की सरकार बेअदबी मामले की जांच कराने और दोषियों को सजा दिलाने के वादे पर सरकार में आई थी। लेकिन साढ़े चार साल के कार्यकाल में छह लोगों की गिरफ्तारी के अलावा इस मामले में कुछ नहीं हुआ। किसने इस घटना को अंजाम दिया और इसका क्या मकसद था यह भी पता नहीं चल सका। कांग्रेस के दो नेताओं नवजोत सिंह सिद्धू और प्रताप सिंह बाजवा ने इसे लेकर पिछले दिनों कैप्टेन को अल्टीमेटम दिया था। बाजवा ने तो 45 दिन की समय सीमा दी थी और कहा था कि ग्रंथ साहिब की बेअदबी करने वालों को सजा नहीं हुई तो वे आंदोलन छेड़ेंगे। जाहिर है यह बड़ा भावनात्मक और संवेदनशील मुद्दा है, जिसे हल करने में कैप्टेन नाकाम रहे थे।

अगले साल के चुनाव में यह बड़ा चुनावी मुद्दा बनता और अगर कैप्टेन ही मुयमंत्री रहते तो कांग्रेस के लिए इसका जवाब देना भारी पड़ता। पंजाब का दूसरा मुद्दा, जिसने कांग्रेस को 2017 में जीत दिलाई थी वह पंजाबी युवाओं में नशे की बढ़ती लत का था। राहुल गांधी ने 11 अक्टूबर 2012 को पंजाब में चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि राज्य में 70 फीसदी युवा नशे की लत के शिकार हैं। लेकिन राहुल ने यह मुद्दा नहीं छोड़ा और 2017 के चुनाव में भी इसे मुद्दा बनाया। बादल परिवार के सदस्यों पर भी इसे लेकर निशाना साधा गया और उन पर कार्रवाई की बात कही गई। लेकिन कैप्टेन साढ़े चार साल के राज में नशे के कारोबार को रोकने में नाकाम रहे। इसके अलावा बिजली की बढ़ती कीमत, किसानों की मुश्किल, बेरोजगारी आदि के मोर्चे पर भी कैप्टेन की सरकार का प्रदर्शन बहुत खराब रहा। केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन से कांग्रेस को फायदा होने का अनुमान लगाया जा रहा था लेकिन पिछले दिनों कैप्टेन ने अजीबोगरीब बयान देकर कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा कर दी थी। उन्होंने कहा था कि किसान पंजाब में प्रदर्शन न करें। उनके प्रदर्शन से राज्य की अर्थव्यवस्था बिगड़ रही है। कैप्टेन ने कहा था कि किसानों को प्रदर्शन करना है तो हरियाणा या दिल्ली जाकर करें।

उनके इस बयान ने एक झटके में किसानों की पूरी सहानुभूति गंवा दी थी। कुल मिला कर कैप्टेन अमरिंदर सिंह पंजाब में कांग्रेस का भट्ठा बैठाने वाली राजनीति कर रहे थे। उन्होंने पहले कहा था कि 2017 का चुनाव उनका आखिरी चुनाव है लेकिन किसानों का आंदोलन शुरू हुआ और संभावना अनुकूल दिखी तो 80 साल की उम्र के बावजूद उन्होंने फिर से लडऩे का ऐलान कर दिया। सो, कुल मिला कर कैप्टेन कांग्रेस के लिए लायबिलिटी बन गए थे और यह बात हाल में हुए चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों से भी जाहिर हो गया था, जिसमें कांग्रेस को दूसरे स्थान पर दिखाया गया। इसलिए चुनाव से पहले उनसे छुटकारा पाने को वैसे ही अच्छी रणनीति मान सकते हैं, जैसे उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह व तीरथ सिंह रावत को हटाना या गुजरात में विजय रुपाणी को हटाना है। उत्तराखंड व गुजरात और पंजाब के घटनाक्रम को अलग अलग चश्मे से नहीं देखा जा सकता है। ये तीनों एक जैसे घटनाक्रम हैं और इनका मकसद भी एक जैसा है। सवाल है कि कांग्रेस ने भाजपा आलाकमान की तरह हिम्मत करके कैप्टेन को तो बदल दिया।

लेकिन अगले पांच महीने में वह पंजाब में ऐसा क्या चमत्कार करेगी, जिससे लोगों का भरोसा उसके प्रति लौटेगा और वह भी अकाली दल की तरह लगातार दूसरी बार सत्ता में आने का इतिहास बनाएगी? इस बार उसकी चुनौती जरा अलग किस्म की है। एक तरफ आम आदमी पार्टी ज्यादा ताकत और तैयारी के साथ लड़ रही है लेकिन दूसरी ओर अकाली दल और भाजपा का तालमेल टूटने से दोनों कमजोर हुए हैं। सो, चारकोणीय मुकाबले में कांग्रेस के लिए मौका तो है पर इसके लिए उसे अगले पांच महीने में चमत्कारिक काम करने होंगे। उसे सबसे पहले तो किसानों को भरोसा दिलाना होगा कि कांग्रेस हर तरह से उनके आंदोलन के साथ है। दूसरे, ग्रंथ साहिब की बेअदबी मामले की जांच में तेजी लाकर सिख समुदाय की आहत भावनाओं पर मल्हम लगाना होगा। तीसरे, मुफ्त बिजली-पानी के आम आदमी पार्टी के वादे के जवाब में उससे बड़ा वादा करना होगा। चौथे, नशे के कारोबारियों पर सती दिखाते हुए धरपकड़ का कोई बड़ा अभियान चलाना होगा। बहरहाल, जैसे भी हो लेकिन चुनाव से पहले कैप्टेन को हटा कर कांग्रेस ने अपने लिए मौका बनाया है। अब यह उसके ऊपर है कि इस मौके का वह कैसे इस्तेमाल करती है?

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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