करना क्या है, पता ही नहीं

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पांच से तुकंबदी बिठानी थी। इसलिए वाक्य से 70 हटा दिया गया। 2014-19 के बीच चला कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ 2019 में बजट में कहा गया कि 55 साल में जो नहीं हुआ वो 5 साल में हो गया। 2 साल बाद जब मोदी सरकार के सात साल हो जाएंगे तो 70 साल बनाम 7 साल का जुमला फिट बैठेगा। 55 साल में भारत की अर्थव्यवस्था 1 ट्रिलियन डॉलर हो सकी, हमने 5 साल में ही इसके आकार में 1 ट्रिलियन डॉलर जोड़ दिया। पचपन साल बनाम पांच साल। अगले पांस साल में पांच ट्रिलियन। चार बार प से पांच आता है।

विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार 1964 में दुनिया की अर्थव्यवस्था का आकार ही 1.8 ट्रिलियन था। तब इस साइज़ में दुनिया की सारी अर्थव्यवस्था समा गई थी। आज यानी 2019 में दुनिया की अर्थव्यवस्था का आकार 87 ट्रिलियन डॉलर से अधिक है। 2014 में 79.29 ट्रिलियन डॉलर था। 2014 से 2019 के बीच दुनिया की अर्थव्यवस्था का आकार कोई 9 ट्रिलियन बढ़ा है। पूरी दुनिया का हिसाब है ये।

क्या हम 55 साल के नारे की सहुलियत के लिए इस तरह का पैमान चुन सकते हैं? 1964 में जब दुनिया की अर्थव्यवस्था का आकार 1.8 ट्रिलियन था तब भारत की अर्थव्यवस्था का आकार था 56.48 बिलियन डॉलर था। तब भारत की अर्थव्वस्था सातवीं बड़ी अर्थव्यवस्था मानी जाती थी। आज भारत का रैंक छठा है। 55 साल पहले 1964 में हम सातवीं बड़ी अर्थव्यवस्था थे। 1962 में चीन से युद्ध भी लड़ा गया था। इस हिसाब से देखें तो कौन सा बड़ा तीर मार लिया हमने। लेकिन क्या इस तरह से देखना चाहिए, यह सवाल है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अनुसार ही पिछले पांच साल में भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 1.85 ट्रिलियन से बढ़कर 2.75 ट्रिलियन डॉलर हुआ। पांच साल में हम 1 ट्रिलियन डॉलर नही जोड़ सके। क्या अगले पांच साल में ढाई ट्रिलियन डॉलर जोड़ सकते हैं? अर्थशास्त्री कहते हैं कि 5 साल में डबल होने के लिए जीडीपी को 12 प्रतिशत की दर से वृद्धि दर हासिल करनी होगी। सरकार कहती है कि अगर पांच साल में 8 प्रतिशत ही जी डी पी वृद्धि दर रहे तो लक्ष्य हासिल कर सकती है।

जवाब मिलता है स्लोगन से। आशा, विश्वास और आकांझा से। हम अर्थव्यवस्था के आकार को क्यों जोड़ने लगे हैं क्या ही श्रेष्ठ और मान्य अवधारणा है? प्रति व्यक्ति आय की नज़र से देख सकते हैं। 2018 में प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत दुनिया के 187 देशों में 147 वें नंबर पर था। 2014 में 169 नंबर पर था। सुधार हुआ फिर भी हम नाइजीरिया, कांगो जैसे देशों से पीछे रह गए। प्रति व्यक्ति आय के मामले में श्री लंका भी हमसे आगे हैं। ये अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का आंकड़ा है।

मोदी सरकार अपने पांच साल का हिसाब नहीं देती। सवाल पूछो तो जनता का वोट सामने रख देती है। जनता का वोट ही तर्क है तो फिर बात ही बेकार है जो इस बजट के भाषण से सरकार ने साबित ही कर दिया। हम न आंकड़ा बताएंगे न ख़र्चा बताएंगे। न रास्ता बताएंगे। बजट के नाम पर सवा दो घंटे भाषण सुनाएंगे। हम ट्रिलियन डॉलर का जाप करेंगे और बाकी मीडिया भी जाप करेगा और फिर सारा देश करेगा। 1947 में भारत आज़ाद हुआ था। उसके चार साल पहले 1943 में बंगाल में अकाल पड़ा था जिसमें 20-30 लाख लोग मर गए थे। विभाजन का दर्द अलग झेलना पड़ा।

अंग्रेज़ों ने इस देश की अर्थव्यवस्था को लूटा और ख़ज़ाना ले गए। आज़ादी से पहले भारत की जीडीपी निगेटिव हुआ करती थी। आज़ादी के बाद भारत ने लोकतांत्रिक देश के रूप में प्रतिष्ठा हासिल की। उन संस्थाओं को बनाया जिनकी बुनियाद पर आगे चलकर देश लहलहाने वाला था। वैसे आज इन्हीं संस्थाओं की दीवारें दरक चुकी हैं। कोई संस्था नहीं बन सकी जिसकी अपनी विश्वसनीयता हो। उस समय जो भी बुनियाद पड़ी उसके भरोसे श यहां तक आया है। आज़ादी के बाद कई दशकों तक भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर हांलाकि ख़ासी सुस्त थी, सालाना करीब 3.5 प्रतिशत, फिर भी औपनिवेशिक दौर की करीब शून्य दर की तुलना में यह बड़ी छलांग थी।

यह पंक्ति मेरी नहीं है। अमर्त्य सेन और ज़्यां द्रेज़ की है। किताब का नाम है भारत और उसके विरोधाभास। राजकमल प्रकाशन ने हिन्दी में छापा है। इसमें भारत के जीडीपी की तालिका दी गई है। 1950-51 से 1960-61 के बीच भारत की जीडीपी 3.7 रही। 1951 में भारतीय जन की जीवन प्रत्याशा 31 साल थी आज करीब 66 साल है। यह क्या बग़ैर किसी आर्थिक तरक्की के हासिल किया गया होगा? महिला साक्षरता 9 प्रतिशत से 65 प्रतिशत तक पहुंच गई है। क्या कल ऐसा भी होगा कि आधार न बनाने के कारण हम नेहरू या गुलजारी लाल नंदा को कसूरवार ठहराएंगे।

आधार की कल्पना तो थी नहीं उस वक्त। जब मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने, उसके ही पहले ही भारत के 95 प्रतिशत हिस्से में बिजली पहुंच गई थी। 6 लाख गांवों में बिजली पहुंच गई थी। सिर्फ 18000 से कुछ अधिक गांवों में रह गई थी। हर सरकार नए मानक जोड़ती है। यह सरकार आपको सुदूर अतीत में इसलिए ले जाती है क्योंकि इसे पता है कि किसी के पास वक्त नहीं है, इतना इतिहास छानने की। हर बात को जांचने की। वित्त मंत्री को 5 साल और 5 ट्रिलियन डॉलर की तुकबंदी मिलानी थी तो 55 साल से आईं। आज उनके पास अपने विचार क्या है?

क्या इस बजट में लाल रंग के कपड़े में लिपटे बहीखाते के अलावा कोई भारतीय विचार है? नीतियों की पूरी अवधारणा शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रिचर्ड थेलर और कैस संस्टीन की थ्योरी पर टिकी है। यही कि लोगों को पता नहीं होता कि क्या करना है। बस उन्हें अपने हिसाब से हांकते रहो। प्रचार प्रसार का इस्तेमाल करते हो। अच्छे शब्दों में इसे प्रेरणा और नैतिक शिक्षा कहते हैं।

रविश कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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