ऐसे तो डूब जाएंगे नीतीश!

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नीतीश कुमार को दुविधा छोड़नी होगी। उन्हें दो टूक फैसला करना होगा। और जल्दी करना होगा। देर करना और बिल्कुल ऐन मौके पर सहयोगी पार्टी को या तो छोड़ देना या उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर देना, नई भाजपा की रणनीति है, जैसा कि उसने महाराष्ट्र में शिव सेना के साथ किया। अब शिव सेना के नेता अंदर अंदर बिलबिला तो रहे हैं पर उनके सामने कोई चारा नहीं बचा है। ऐसे ही बिहार में भी भाजपा की रणनीति जदयू के साथ तालमेल को अगले साल होने वाले चुनाव से ऐन पहले तक खींचने की है। नीतीश कुमार इस दांव को समझ रहे हैं पर अपनी दुविधा में वे फैसला नहीं कर पा रहे हैं।

बिहार में भाजपा के नेता ऐसे हालात बना रहे हैं कि नीतीश और उनके नेता बार बार नाराज होते रहें। इसके बरक्स नीतीश ऐसे हालात नहीं बना पा रहे हैं, जिसमें भाजपा के नेता सच में नाराज हों। उलटे जब भाजपा नेताओं की बयानबाजी बढ़ जा रही है तो उसके शीर्ष नेता उन्हें चुप करा दे रहे हैं। जैसे गिरिराज सिंह ने पटना में जलजमाव को लेकर नीतीश पर हमला किया तो खबर है कि कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने उनसे कहा कि वे गठबंधन को लेकर बयानबाजी न करें। यानी पहले भाजपा के नेता नीतीश को खरी खोटी सुनाते हैं और उनके कामकाज की आलोचना करते हैं और फिर पार्टी का आला नेतृत्व उन्हें चुप करा देता है। इस तरह भाजपा नीतीश के विरोध में भी रहती है और उनके साथ भी रहती है।

जब भी ऐसा होता है तो जदयू के नेताओं को लगता है कि उनको जीत मिल गई। उन्होंने भाजपा नेताओं को चुप करा दिया। पर असलियत यह नहीं है। असल में यह भाजपा की रणनीति का हिस्सा है, जो वह दो कदम आगे बढ़ कर एक कदम पीछे हट जा रही है। वह सरकार के कामकाज पर सवाल उठा कर अपने ऊपर से एंटी इन्कंबैंसी को हटाने की राजनीति कर रही है ताकि अकेले चुनाव लड़ने पर सरकार की विफलता का जवाब उसे नहीं देना पड़े।

हालांकि भाजपा की मुश्किल यह है कि अभी तक उसका अपना वोट आधार नहीं बन पाया है। भूपेंद्र यादव और नित्यानंद राय के जरिए यादव राजनीति साधने के तमाम प्रयासों के बावजूद उसे सफलता नहीं मिली है। देश के दूसरे हिस्सों की तरह बिहार में भाजपा न तो अगड़ों की पार्टी है और न गैर यादव पिछड़ों व अति पिछड़ों की पार्टी है। लोकसभा चुनाव में बिहार के लोग भले नरेंद्र मोदी के करिश्मे से प्रभावित होकर उनके लिए वोट करते हैं पर विधानसभा चुनाव में भाजपा के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है कि लोग जाति से ऊपर उठ कर उसे वोट कर दें। कह सकते हैं कि भाजपा या किसी भी दूसरी पार्टी के पास नीतीश कुमार का विकल्प नहीं है।

यह नीतीश की एकमात्र पूंजी है। सुशासन की अपनी पूंजी वे गंवा चुके हैं और भाजपा विरोधी महागठबंधन का नेता होने की अपनी पात्रता पर भी सवालिया निशान लगा चुके हैं। उन्हें 2015 के चुनाव से पहले राहुल गांधी ने लालू प्रसाद पर दबाव डाल कर महागठबंधन का नेता बनवाया था। पर नीतीश ने राजद और कांग्रेस दोनों के साथ धोखा किया। इसके बावजूद कांग्रेस नीतीश कुमार का साथ दे सकती है। इस बारे में फैसला नीतीश को करना है। इस समय वे एक तरफ अपने को सेकुलर बनाने में लगे हैं तो दूसरी ओर भाजपा के लिए राज्यसभा की सीट छोड़ कर इस उम्मीद में हैं कि विधानसभा में भाजपा उनको ज्यादा सीट दे देगी।

असल में नीतीश दो नावों पर सवारी कर रहे हैं। एक तरफ वे सेकुलर बनने के प्रयास में हैं। उनकी पुलिस ने देश के 49 प्रबुद्ध लोगों की खुली चिट्ठी के मामले में दर्ज एफआईआर निरस्त कर दी है और अदालत में याचिका देने वाले के खिलाफ ही मुकदमा दायर कर दिया है। इसी तरह गांधी मैदन के दशहरा कार्यक्रम में राज्यपाल और उप मुख्यमंत्री सहित कोई भाजपा नेता नहीं पहुंचा तो नीतीश ने कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा को अपनी बगल में बैठाया। ऐसे ही वे 13 अक्टूबर को सीपीआई के दिग्गज नेता रहे पूर्व सांसद कमला मिश्र मधुकर की स्मृति में लगाई जा रही प्रतिमा के अनावरण में शामिल होने जा रहे हैं। दूसरी ओर उन्होंने राम जेठमलानी के निधन से खाली हुई सीट भाजपा के लिए छोड़ दी, जिस पर पार्टी ने अपने एक बाहुबली नेता सतीश चंद्र दूबे को संसद भेजा है।

नीतीश को लग रहा है कि वे दोनों नावों पर बराबर सवारी कर सकते हैं। वे भाजपा को भी साध सकते हैं और कांग्रेस, लेफ्ट, समाजवादी और अन्य लोगों को भी साध सकते हैं। ऐसा वे अति आत्मविश्वास में नहीं कर रहे हैं, बल्कि दुविधा की वजह से कर रहे हैं। उन्हें अपनी दुविधा खत्म करनी होगी। या तो भाजपा से अलग फिर महागठबंधन का प्रयोग करना होगा या फिर जैसा कि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा है उनको भाजपा का छोटा भाई बन कर राजनीति करने के लिए तैयार हो जाना होगा।

अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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