ऐसी विधायिका की क्या जरुरत ?

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संसद का मॉनसून सत्र खत्म हो गया है। समय से पहले। इस सत्र में संसद में आम लोगों से जुड़े किसी भी एक मसले पर एक मिनट की भी चर्चा नहीं हुई है। देश की आम जनता महंगाई से त्रस्त है। पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के सिलिंडर से लेकर खाने-पीने तक की चीजों की कीमतें आसमान छू रही हैं लेकिन संसद में इस पर चर्चा नहीं हुई है। बेरोजगारी की दर उच्चतम सीमा पर है। ताजा आंकड़े के मुताबिक जुलाई में यह आठ फीसदी से ऊपर थी। देश की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा हुआ है। बैंकों के पैसे डूब रहे हैं। देश के आधे से ज्यादा हिस्से में बारिश और बाढ़ की त्रासदी है। औसतन 40 हजार कोरोना के मरीज हर दिन मिल रहे हैं और वैसीनेशन का अभियान घसीट-घसीट कर आगे बढ़ रहा है। स्कूल-कॉलेज बंद हैं और घरों में बंद बच्चे मानसिक अवसाद का शिकार हो रहे हैं। देश के किसान केंद्र के बनाए कृषि कानूनों के खिलाफ साढ़े आठ महीने से आंदोलन कर रहे हैं और हजारों किसान दिल्ली की सीमा पर बैठे हैं। चीन भारत की सीमा में घुस कर बैठा है और सीमा पर करीब डेढ़ साल से तनाव की स्थिति है। लेकिन इनमें से किसी भी मसले पर कोई चर्चा नहीं। संसद का सत्र शुरू होते ही पेगासस से जासूसी का मामला सामने आया था। विपक्षी पार्टियों ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और व्यति की निजता के साथ जोड़ कर इस पर चर्चा की मांग की थी, लेकिन उस पर भी चर्चा नहीं हुई है।

हैरानी की बात है कि तीन हफ्ते और दो दिन तक संसद की कार्यवाही बाधित करने के बाद सभी पार्टियां जिस मसले पर चर्चा के लिए राजी हुईं वह ओबीसी जातियों की सूची में बदलाव का अधिकार राज्यों को देने का विधेयक था। इस पर बुधवार को लोकसभा में चर्चा हुई और आम सहमति से इसे पास कराया गया। संविधान की जरूरत पूरी करने के लिए इस पर वोटिंग हुई और सदन में मौजूद सभी 385 सांसदों ने इसके पक्ष में वोट किया। सवाल है कि क्या संविधान का यह संशोधन विधेयक बाकी तमाम चीजों से ज्यादा महत्वपूर्ण है, जो उसे इतनी प्राथमिकता के साथ पास कराया गया? क्या यह महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना, अर्थव्यवस्था, किसान संगठन या सीमा सुरक्षा से ज्यादा महत्व का मसला था, जिस पर एकजुटता बन गई? तभी सवाल है कि ऐसी संसद की या जरूरत है? यह सवाल पूरे देश के संदर्भ में भी किया जा सकता है कि आखिर इस देश में विधायिका की ही या जरूरत है? जब संसद और विधानसभाओं की बैठक खानापूर्ति के लिए होती है, उसमें आम लोगों से जुड़े किसी मसले पर सार्थक चर्चा नहीं होती है, कानून बनाने से पहले आम सहमति बनाने का प्रयास नहीं होता है, विधेयकों को संसदीय समितियों के पास नहीं भेजा जाता है, विपक्ष की अच्छी-बुरी किसी राय का कोई मतलब नहीं होता है फिर ऐसी विधायिका का क्या काम है?

किसी मंत्रालय का संयुत सचिव स्तर का अधिकारी कानून का मसौदा तैयार करता है, कैबिनेट उसे पास करती है और जस का तस उसे संसद या विधानसभा से भी पास कर दिया जाता है तो इसके लिए संसद या विधानसभा के भारी भरकम तामझाम की या जरूरत है? जब कार्यपालिका को सब पता है और उसके शीर्ष पर बैठा व्यति सर्वज्ञ है तो फिर सब कुछ उसी को करने दिया जाए! दिल्ली में बैठे प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक का बरताव एक जैसा हो गया है। सब विधायिका को अपना एजेंडा पूरा करने का माध्यम भर मानते हैं। कहने को देश में संसदीय लोकतंत्र है लेकिन शासन की संसदीय प्रणाली की जगह एकाधिकारवादी व्यवस्था बन गई है। सारी शतियां प्रधानमंत्री कार्यालय यानी पीएमओ और मुख्यमंत्री कार्यालय यानी सीएमओ में सिमट कर रह गई हैं। एकाधिकारवादी इसलिए क्योंकि इसे शासन की अध्यक्षीय प्रणाली भी नहीं कह सकते हैं। जिन देशों में शासन की अध्यक्षीय प्रणाली है वहां भी विधायिका का पूरा महत्व होता है। अमेरिका में राष्ट्रपति अपनी मर्जी से फैसले नहीं कर सकता है। सीधे जनता से चुने जाने के बावजूद उसे अपने फैसलों को संसद से मंजूर कराना होता है और अगर राष्ट्रपति का फैसला आम अमेरिकी के हित में नहीं होगा तो राष्ट्रपति की पार्टी का सांसद भी उसका विरोध करता है।

भारत में इस बारे में सोचा ही नहीं जा सकता है कि सत्तारूढ़ दल का कोई सांसद प्रधानमंत्री के फैसले का या सत्तारूढ़ दल का कोई विधायक मुख्यमंत्री के फैसले का विरोध करेगा। उसका काम सदन के अंदर सिर्फ हाथ उठाने का होता है। उसे समझा दिया जाता है कि किस समय उसे हां बोलना है और कब ना। वह बस इस आदेश का पालन करने के लिए सदन में बैठता है। अगर कहीं किसी सदस्य के मन में स्वतंत्र विचार की जरा सी भी भावना आती है तो उसके सामने व्हिप की तलवार लटका दी जाती है। इसका मतलब है कि अगर कोई सांसद या विधायक अपनी सरकार के लाए किसी विधेयक से सहमत नहीं है क्या उसमें कोई बदलाव चाहता है या किसी फैसले को पूरी तरह से बदलने के पक्ष में हो तब भी वह विधायिका के अंदर अपने इस विचार पर अमल नहीं कर सकता है। हर विधेयक पास कराने से पहले तीन लाइन का एक व्हिप जारी कर दिया जाता है, जिसका पालन नहीं करने पर सदस्यता खत्म हो सकती है। तभी विधायिका के सदस्यों के सामने यह यक्ष प्रश्न पैदा होता है कि वे अपनी अंतरात्मा की आवाज को बचाएं या अपनी सदस्यता बचाएं? ऐसे में हमेशा अंतरात्मा की आवाज ही हारती है। यही कारण है कि सांसदों और विधायकों ने अब कानून बनाने की प्रक्रिया के बारे में सोचने या उसमें शामिल होने का विचार स्थायी रूप से त्याग दिया है।

उनकी पहली प्राथमिकता यह होती है कि वे कैसे अपने क्षेत्र की जनता को खुश रखें। जातीय समीकरण और सांप्रदायिक माहौल के अलावा उनके पास एक तरीका यह होता है कि वे अपने क्षेत्र में विकास के कुछ काम कराएं और जहां तक हो सके, लोगों के निजी काम भी कराएं। इसके लिए वे मंत्रियों के कार्यालयों के चक्कर लगाते रहते हैं। जन प्रतिनिधि के नाते कानून बनाना नहीं, बल्कि पैरवी करना उनका मुख्य काम हो गया है। वे मंत्रियों और अधिकारियों के यहां पैरवी करने के काम को अपनी प्राथमिकता मानते हैं। लोगों को भी अपने चुने हुए प्रतिनिधि से ऐसी कोई उमीद नहीं रहती है कि वे कोई क्रांतिकारी कानून बनाने में सहयोग करेंगे। लोग भी उनसे किसी विधायी काम की बजाय अपने छोटे-छोटे कामों की उम्मीद करते हैं और ऐसा इसलिए है योंकि इस देश में लोगों के छोटे छोटे काम कराने की भी कोई व्यवस्था नहीं बनी है। सो, विधायिका के सदस्यों को लग रहा है कि लोगों के छोटे छोटे काम करा कर वे जीत सकते हैं या नेता का करिश्मा उनकी जीत सुनिश्चित करेगा। इसलिए वे विधायी कामकाज में नेता के इशारे पर हाथ उठाते रहते हैं और बाकी समय वे अपने क्षेत्र के लोगों के काम की पैरवी में व्यस्त रहते हैं। यहीं कारण है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के मुकाबले विधायिका सर्वाधिक अप्रासंगिक हुई है।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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