इस कोढ़ से राहत मिलने के आसार

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हजारों वर्ष पुराने वीभत्स और क्रूर सामाजिक कोढ़ से राहत मिलने की संभावना दिख रही है। सामाजिक न्याय मंत्रालय की ओर से तैयार एशन प्लान सर पर मैला ढोने तथा सीवर और सेप्टिक टैंकों में जाकर सफाई करने के प्रचलन पर रोक लगाने को कृतसंकल्प है। सर्वोच्च न्यायालय की इस बारे में की गई तल्ख टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण है कि ‘दुनिया के किसी भी देश में लोगों को मरने के लिए गैस चैंबर में नहीं उतारा जाता है।’ पिछले 10 वर्षों में केवल मुंबई महानगरपालिका के 2721 कर्मचारियों की मौत सफाई करने के दौरान हुई है। 500 से 1000 रुपये के लालच में ये मजदूर जहरीले चैंबरों में उतरने का जोखिम उठाते हैं, जिसमें अमोनिया, कार्बन मोनोऑसाइड, सल्फर डायऑसाइड आदि जहरीली गैसों के कारण इनकी मौत तक हो जाती है । कई बार सफाईकर्मियों को शराब के अत्यधिक सेवन के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है, ताकि संभावित घटनाओं के प्रति वे बेखबर रहें। 2011 की आर्थिक, सामाजिक और जातिगत जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार आठ लाख भारतीय अपने सिर पर मैला ढोने का काम करते हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार देश में सूखे शौचालयों की संया लगभग 20 लाख है। अनुमानत: 14 लाख शौचालयों का मलबा खुले में बहा दिया जाता है, जिनमें 8 लाख से ज्यादा शौचालयों के मल की सफाई हाथों से की जाती है।

देश में सिर्फ 30 फीसदी नालों का पानी ही ट्रीट हो पाता है। पिछले कुछ वर्षों में सीवर और सैप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान मृतकों की संख्या में बेशुमार बढ़ोतरी हुई है। 2019 का वर्ष इस तरह की दुर्घटनाओं में तेज वृद्धि का दौर माना गया है, जब 110 सफाईकर्मी एक ही वर्ष में मृत पाए गए। यह संया 2018 के मुकाबले 61 फीसदी अधिक है। शुष्क शौचालयों के निर्माण और मैला ढोने पर रोक लगाने वाला कानून 6 सितंबर 1993 को बनाया गया था। मैला ढोने जैसे रोजगार का निषेध और पुनर्वास 2013 के खंड 7 के तहत सेप्टिक टैंकों की सफाई जैसे खतरनाक कार्य करने अथवा मजदूरी करवाने पर प्रतिबंध है। मौजूदा कानून के तहत इस प्रकार की सफाई और शुष्क शौचालयों का जारी रहना संविधान के अनुच्छेद 14, 17, 21 और 23 का उल्लंघन है । इन कानूनों के बावजूद लाखों की संख्या में दलित और खासकर वाल्मीकि समाज के लोग ऐसे कार्यों में मजबूरीवश लगे हुए हैं। सन 2014 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के अनुसार सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को 2013 का कानून पूर्ण रूप से लागू करने, सीवर टैंकों की सफाई के दौरान हो रही मौतों पर काबू पाने और मृतकों के आश्रितों को 10 लाख मुआवजा देने का आदेश दिया गया था, लेकिन दुर्भाग्य है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश भी कागजों तक ही सीमित रह गए हैं।

मामूली घटनाओं पर नाराजगी और दुख जताने वाला सभ्य समाज इनके पक्ष में कभी कोई कैंडल मार्च भी आयोजित नहीं करता है। संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर का पहला सत्याग्रह 25 नवंबर 1927 को इन्हीं वर्गों को तालाब के पानी से वंचित करने के विरोध में था। डॉक्टर आंबेडकर की पीड़ा थी कि वहां से तथाकथित अछूतों के जानवरों के जाने की इजाजत थी पर उन जानवरों के मालिकों का जाना प्रतिबंधित था। अंग्रेज कलेटर ने अपने आदेशों में इन समूहों के सवालों को सही माना था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक कदम आगे जाकर इन वर्गों के तिरस्कार के विरुद्ध खड़े थे। मंत्रालय की ओर से एशन प्लान का जो मसौदा तैयार किया गया है, उसमें 2013 के मैला ढोने के कानून में काफी संशोधन कर कड़े प्रावधान किए गए हैं। अब सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई एक प्रशिक्षित और सुरक्षा कवचों तथा मास्क आदि की सुविधा से लैस कर्मचारी की देखरेख में ही कराई जा सकेगी। इन उपकरणों को उपलब्ध कराए बगैर सफाई के कार्य को गैरकानूनी माना जाएगा। नए संशोधन के अनुसार इन नियमों का पहली बार उल्लंघन करने पर सजा की अवधि 5 वर्ष तय की गई है। इसमें 5 लाख रुपये की जुर्माना राशि भी शामिल है। पुन: उल्लंघन की शिकायत के बाद सजा की अवधि 7 वर्ष और 10 लाख रुपये का जुर्माना अथवा दोनों दंड एक साथ भी दिए जाने की व्यवस्था है।

आमतौर पर नगरपालिका, नगर निगम आदि संस्थाएं इन कार्यों को निजी एजेंसियों के जरिये करवाती हैं। भविष्य में निजी संस्थाओं की ओर से ऐसे सफाई कार्यक्रमों के लिए लाइसेंस लेना जरूरी होगा। अनधिकृत और बगैर पंजीकरण के कोई संस्था इस प्रकार के नहीं करवा सकेगी। सन 2013 से आधा दर्जन से अधिक संशोधन प्रस्तावित हैं, जिनमें दिसंबर 2020 तक एक केंद्रीय मॉनिटरिंग कमिटी का गठन होना शामिल है जो इनका कड़ाई से पालन करा सके। स्वच्छ उद्यमी योजना के तहत 4 प्रतिशत के ब्याज पर सफाई से संबंधित मशीनें भी उपलब्ध कराने का प्रावधान है। अधिकारी, इंजीनियर, सफाई इंस्पेटर, ठेकेदार समय-समय पर वर्कशॉप का आयोजन करेंगे ताकि सफाईकर्मियों को नए और उपयोगी उपकरणों के इस्तेमाल के लिए तैयार किया जा सके। सेप्टिक टैंकों का निर्माण तय मानकों के अनुसार किया जाना जरूरी है। राहत की बात है कि स्वच्छता अभियान केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है। पिछले कई वर्षों के निरंतर प्रयासों से खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति पर रोक लगी है और शौचालयों के निर्माण में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। अब नए संशोधन नियमों को सती से लागू करने की जरूरत है ताकि सदियों से सामाजिक-आर्थिक विषमता की चकी में पिस रहे लोगों की जिंदगी में भी रोशनी की किरण दिखाई दे सके।

केसी त्यागी
(लेखक जेडी-यू के राष्ट्रीय प्रवता हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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